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२८८ स्वामिकार्तिकेयानुभेक्षा
[गा ३९५परमाणे चउदिई विहिगा । गहिदूण तदो सठ आलोवेजो पयत्तण ॥ १०॥ एमेव होदि विदिओ गवार विसेसो पुगे पाठन करते हैं तो वे संयमी कहे जाते हैं । और बिना समितियों के वे केवल विरत है। जैसा कि वर्गणाखण्ड के बन्धाधिकारमें लिखा है-'संयम और विरतिमें क्या भेद है ! समिति सहित महानतो और अणुव्रतोंटो संगम करते हैं और संयम दिना महान और अणुव्रत विरति कहे जाते हैं । उक्त ग्यारह प्रतिमाओंमेंसे ( सब श्रावकाचारोंमें दार्शनिकसे लेकर उद्दिष्टत्याग तक ग्यारह प्रतिमाएं ही बतलाई है ) दर्शनिक से लेकर शुरु की छः प्रतिमात्राले श्रावक जघन्य होते हैं, उसके बाद सातवीं, आठवीं और नौवीं प्रतिमावाले श्रावक मध्यम होते हैं । और अन्तिम दो प्रतिमाधारी श्रावक उत्कृष्ट होते हैं !' चारित्रसारमें श्रावक धर्मका विस्तारसे वर्णन किया है जिसे संस्कृत टीकाकारने उद्धृत किया है । "अतः वह संक्षेपमें दिया जाता है-गृहस्थलोग तलवार चलाकर, लेखनीसे लिखकर, खेती या व्यापार आदि करके अपनी आजीविका चलाते हैं, और इन कार्योंमें हिंसा होना संभव है अतः वे पक्ष, चर्या और साधनके द्वारा उस हिंसाको दूर करते हैं । अहिंसारूप परिणामोंका होना पक्ष है। गृहस्थ धर्मके लिये, देवताके लिये, मंत्र सिद्ध करने के लिये, औषधके लिये, आहारके लिये और अपने ऐशआरामके लिये हिंसा नहीं करूंगा । यही उसका अहिंसारूप परिणाम है । तथा जब वह गाहस्थिक कार्यों में हुई हिंसाका प्रायश्चित्त लेकर सब परिग्रहको छोड़नेके लिये उद्यत होता है और अपना सब घरद्वार पुत्रको सौंपकर घर तक छोड़ देता है उसे चर्या कहते हैं । और मरणकाल उपस्थित होनेपर धर्मभ्यानपूर्वक शरीरको छोड़ने का नाम साधन है। इन पक्ष, चर्या और साधनके द्वारा हिंसा आदिसे संचित हुआ पाप दूर हो जाता है । जैनागममें चार आश्रम अथवा अवस्थायें कही है-ममचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक । ब्रह्मचारी पाँच प्रकारके होते हैं-उपनय ब्रह्मचारी, अवलम्ब अमचारी, दीक्षा ब्रह्मचारी, गूढ ब्रह्मचारी, और नैष्टिक ब्रह्मचारी। जो ब्रह्मचर्यपूर्वक समस्त विद्याओंका अभ्यास करके गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे उपनय ब्रह्मचारी हैं। क्षुल्लक रूपसे रहकर आगमका अभ्यास करके जो गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे अबलम्ब ब्रह्मचारी हैं । बिना किसी पेशके आगमका अभ्यास करके जो गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं वे अदीक्षा ब्रह्मचारी हैं। जो कुमारश्रमण विद्याभ्यास करके बन्धुजन अथवा राजा आदिके कारण अथवा स्वयं ही गृहस्थधर्म स्वीकार करते हैं वे गूढ अमचारी हैं। जो चोटी रखते हैं, भिक्षा भोजन करते हैं और कमरमें रक्त अथवा सफेद लंगौटी लगाते हैं वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं । इज्या, वार्ता, दान, खाध्याय, संयम और तप ये गृहस्थके षट् कर्म हैं । अर्हन्त देवकी पूजाको इज्या कहते हैं । उसके पाँच भेद हैं-नित्यपूजा, चतुर्मुग्यपू ना, कल्पवृक्षपूजा, अष्टाहिकपूजा और इन्द्रध्वजपूजा । प्रति दिन शक्तिके अनुसार अपने घरसे अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालयमें जिनेन्द्र देवकी पूजा करना, चैत्य और चैल्यालय बनवाकर उनकी पूजाके लिये गांव जमीन जायदाद देना तथा मुनिजनोंकी पूजा करना नित्यपूजा है । मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो जिनपूजा की जाती है उसे चतुर्मुख पूजा कहते हैं, क्यों कि चतुर्मुख बिम्ब विराजमान करके चारोंही दिशामें की जाती है । बड़ी होनेसे इसे महापूजा भी कहते हैं। ये सब जीवोंके कल्याण के लिये की जाती है इसलिये इसे सर्वतोभद्र भी कहते हैं । योचकोंको उनकी इच्छानुसार दान देने के पश्चात् चश्यती अईन्त भगवानकी