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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४१५रूपं स्वर्गादिसुसजनकम् अमिलषति वाञ्छति ईहते। कया। विषयसौख्यतृष्णया पवेन्द्रियाणां सप्तविंशतिविषयसुखवाग्छया पुण्यं वाग्छति । स कीदग्विधः सन् 1 सकषायः कषायैः सह वर्तते इति सकरायः क्रोधमानमामालोभरागद्वेषादिपरिणामसहितः । तस्य पुंसः विशुद्धिः विशुद्धिता निर्मलता पित्तविशुद्धिता कर्मणामुपशान्सतादिवा अतिशयेन पूरतरा भवति । भवत नाम विशवः दस्त्वं. का नो हानिः इति न बाच्यम् । यतः पुण्यानि शुभकर्माणि देवशास्त्रगुरुभक्तिकानि दानपूजाव्रतवीलयुक्तानि विशुद्धिमूलक शिकारमाल, विद्वेरमात्र गमाः । ४१ । पुण्णासाण पुण्णं जदो' गिरीहम्म पुण्ण-संपत्ती । इय जाणिऊण जइणो' पुण्णे वि म आयरं कुणह ॥ ४१२ ॥ छाया-पुण्याशया न पुण्यं यतः निरीहस्य पुण्यसंप्राप्तिः । इति ज्ञात्वा यतयः पुण्ये अपि मा भादरं कुरुत ॥] मो यतयः भो.साधवः मुनयः पुण्येऽपि, न केवल पापे, आदर प्रशस्तकोपार्जने उद्यम मा कुरवं यूर्य मा कुस्त । कि कृत्वा । इति पूर्वोक्त पुण्यफलं ज्ञात्वा मत्वा । इति किम् । निरीहस्य इह परलोकसौख्यवाञ्छारहितस्य श्रुतानुभूतभोगाकोक्षारूपनिदानरहितस्य लोभाकांक्षारहितस्य पुंसः पुण्यसंपत्तिः प्रशस्तकर्मणां प्राप्तिर्भवति, सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्रकर्मणां बन्धः स्यात् । यतः पुण्याशया पुण्यवाञ्छया शुभकर्मणामीहया पुण्यं न भवति, निदानादीनां वाग्छाऽशुभकर्मोत्पादमखात् ॥ ४१२॥ पुष्णं बंधदि जीवो मंद-कसाएहि परिणदो संतो। तम्हा मंद-कसाया हेॐ पुण्णस्स ण हि बंछा ॥ ४१३ ॥ [छाया-पुण्य बधाति जीवः मन्दकषायैः परिगतः सन् । तस्मात् मन्दकषायाः हेताः पुण्यस्य न हि वाञ्छा ॥] जावः भात्मा यतः कारणात् बन्नाति बन्धनं विदधाति । किं तत् । पुण्यं मुभं कर्म प्रशस्तप्रकृतिसमूह 'सद्धेद्यशुभायुर्नामअतः चित्तकी विशुद्धि उससे सैकड़ों कोस दूर है । शायद कोई कहे कि यदि उससे विशुद्धि दूर है तो रही आओ, हानि क्या है ? इसका उत्तर यह है कि देव शास्त्र और गुरुकी भक्ति, दान, पूजा, व्रत, शील आदि शुभ कर्मका मूल कारण चित्तकी विशुद्धि है । चित्तकी निशुद्धि हुए बिना पुण्यकर्मका संचय नहीं होता || ४११ ॥ अर्थ-तथा पुण्यकी इच्छा करनेसे पुण्यबन्ध नहीं होता, बल्कि निरीह (इच्छा रहित ) व्यक्ति को ही पुण्यकी प्राप्ति होती है । अतः ऐसा जानकर हे यतीबरों, पुण्यमें भी भादर भाव मत राखो ।। ४१२ ॥ अर्थ-मन्दकषायरूप परिणत हुआ जीव ही पुण्यका बन्ध करता है। अतः पुण्यबन्ध का कारण मन्द कषाय है, इच्छा नहीं ।। भावार्थ-इच्छा मोहकी पर्याय है अतः वह तीन कषाय रूप ही है। फिर इच्छा करनेसे ही कोई वस्तु नहीं मिल जाती । लोकमें भी यह बात प्रसिद्ध है कि इच्छा करनेसे कुछ नहीं मिलता और बिना इच्छाके बहुत कुछ मिल जाता है । अतः इच्छा तो मुण्यकी छोड़ मोक्षकी भी निषिद्ध ही है । यहाँ यह शक्का हो सकती है कि पुराणोंमें पुण्यका ही व्याख्यान किया है और पुण्य करनेकी प्रेरणा मी की है । पुण्य कर्मसे ही मनुष्यपर्याय, अछा कुळ, अच्छी जाति, सत्संगति भादि मोक्षके साधन मिलते हैं । तब ऐसे पुण्यकी इच्छा करना बुरा क्यों है ? इसका समाधान यह है कि भोगोंकी लालसासे पुण्यकी इच्छा करना बुरा है । जो भोगोंकी तृष्णासे पुण्य करता है, प्रथम तो उसके सातिशय पुण्यबन्ध ही नहीं होता । दूसरे, थोपा बहुत पुण्य बन्ध करके उसके फल स्वरूप जब उसे भोगोंकी प्राप्ति होती है तो यह अति अनुरागपूर्वक १ व पुण्णासम (१)। २ म होवि ३ मुणिगी। मण। ५ ख कुणः । ६ ग आज (ओ)। महेउ ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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