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________________ -४११] १२. धर्मानुप्रेक्षा बारिल जलः पुण्यं प्रतं कर्म राहातुकम् उत्तमननुष्य देवा दिगतिकारणम् पुण्यक्ष्येणैव शुभप्रकृतिविनाशनेन एवं नियम निर्वाण मोक्षः स्यात् । उके च । 'कषिप्रमोक्षो मोक्षः' इति । ननु पुण्यवाच्या कथं संसारः समीहितो भवति । तत्कथम् ततरमाह । सम्मदव सहितानां पुष्पं देवशास्त्रगुरुमफिलक्षणं पापं व भद्रं परंपरया मोक्षकारणं स्यात् । सम्यस्वरहितानां पुण्यमपि भद्रं न भवति । कुतः । तेन निदानबन्धपुण्येन भवान्तरे स्वर्गादिसुख लभ्या पश्चाश्वरकादिकं गच्छन्तीति भावार्थः । तथा चोकं । “घरं नरकवासोऽपि सम्यत्तत्वेन हि संयुतः । न तु सम्यक्त्वहीनस्य निवासो दिवि राजते ॥” तथा च । 'जे नियदंसण अहिमुद्दा सोक्खु अणंतु कहंति । ते विणु पुण्ण करता त्रि दुक्खु अतु सति ॥ " ये केचन निजदर्शनामिमुखाः निश्वयसभ्यताभिमुखास्ते पुरुषाः सौख्यमनन्तं लभन्ते । अपरे केचन तेन सम्यत्तवेन चिना पुण्यं दानपूजादिकं कुर्वाणाः दुःखमनन्तमनुभवन्ति इति । तथा। “पुण्णेम होइ विवो विदेश मओ मरण मइमोहो । महमोद्देण य पावं तं पुष्णे अम्ह मा होउ ॥" पुण्येन दृष्टश्रुतातुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानसहितेन विभवो विभूतिर्भवति । विभवेन मोहंकारो गर्यो भवति । विज्ञानाद्यष्टविधमदेन मतिभ्रंशो विवेकमूढत्वम्, मोहेन मतिमूढत्वेन पापं भवति । तस्मादित्यंभूतं पुण्यम् अस्माकं माभूदिति । किमिति पुण्यम् । “देवहे सत्यहं मुणिवरहं भतिए पुष्णु हनेइ । कम्मक्लव पुणु होइ णवि अज्जउ संति भणेह ॥" तथा देवसेनेनोक्तम् । “अइ वृषउ त पालेज जर्म पटउ सयलमत्याई । जाम करव अप्पा ताम ण मोक्खं जिणो भणई ॥” तथा योगेन्द्रदेवेन । "पावें णार तिरिउ जिउ पुण्णे अमरु विषाणु । मिस्सें माणुसगह लहर दोहि वि खए, पिब्वाणु ॥" पापेन नारको जीवो भवति तथा तिर्यग्जीवो भवति पुण्येन भ्रमरो देवो भवति इति जानीहि मिश्रेण पुण्यपापद्वयेन मनुष्यगतिं लभते, द्वयोरपि पुण्यपापयोः कर्मणोः क्षयेन मोक्षे लभत इति ॥ ४१० ॥ जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ विसय-सोक्ख-तण्हाए । दूरे तस्स विसोही विसोहि मूलाणि पुष्णाणि ॥ ४११ ॥ ३११ [ छाया - यः अमिलषति पुण्यं समवायः विषयसौख्यतृष्णया । दूरे तस्य विशुद्धिः विशुद्धिमूलानि पुण्यानि 12 1 यः पुमान् दृष्टश्रुतानुभूतभोगार्काक्षारूपनिदान बन्त्रपरिणामसहितः रमत्रयरहितः पुण्यं प्रशस्तं कर्म सद्वैधशुभायुर्नामगोत्रret खर्ग आदिका सुख भोगकर पीछे नरक आदि कुगतिमें चला जाता है। कहा भी है- 'सम्यवस्व के साथ नरक में रहना मी अच्छा है किन्तु सम्यक्त्वके बिना खर्गमें रहना भी अच्छा नहीं है ॥' और भी कहा है- 'जो जीव आत्मदर्शनरूप निश्चय सम्यक्त्व अभिमुख हैं वे अनन्त सुखको प्राप्त करते हैं । किन्तु जो सम्यक्त्व बिमा पुण्य करते हैं वे अनन्त दुःख भोगते हैं' || पुण्यकी बुराई बतलाते हुए कहा है- 'पुण्य से विभूति मिलती है । विभूतिके मिलनेसे अहंकार पैदा होता है । अहंकारके होने से हिताहितका विवेक जाता रहता है। विवेकके नष्ट हो जानेसे मनुष्य पापमें लिप्त हो जाता है, अतः ऐसा पुण्य हमें नहीं चाहिये ||' आचार्य देवसेनने भी कहा है- 'कितना ही तप करो, संयम को पालो और शास्त्र पढो, किन्तु जब तक आत्माको नहीं जानोगे तब तक मोक्ष नहीं होगा ।' योगीन्द्र देवने मी कहा है- 'पापसे जीव नारकी और तिर्यश्च होता है, पुण्यसे देव होता है तथा पुण्य और पापके मेलसे मनुष्य होता है। और पुण्य और पापके क्षयसे मोक्ष प्राप्त करता है' ॥ ४१० ॥ अर्थ- जो कषाय सहित होकर विषयसुखकी तृष्णासे पुण्यकी अभिलाषा करता है, उससे विशुद्धि दूर है और पुण्यकर्मका मूल विशुद्धि है || भावार्थ- जो मनुष्य देखे हुए, सुने हुए अथवा भोगे हुए पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंकी तृष्णासे पीड़ित होकर इस लिये पुण्य कर्म करना चाहता है कि उससे मुझे स्वर्ग मिलेगा और वहाँ मैं देवांगनाओंके साथ भोग विलास करूँगा, उस मनुष्य के तीव्र कषाय है १ सुक्ख ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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