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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४०९[छाया-इति एष जिनधर्मः अलग्यपूर्वः अनादिकाले अपि । मिथ्यात्वसंयुताना जीवाना लम्विहीमानाम् ॥] इत्युकप्रकारेण एष प्रत्यक्षीभूतो जिनधर्मः सर्वशोकधर्मः मिथ्यात्वसंयुकाना जीवानाम् अनादिकालीनमिथ्यात्वसंयुकानो जीवानाम् अनादिकालेऽपि अनन्तानन्तातीतकालेऽपि भपिशब्दात् अभव्यदूरानुत्तरभव्यापेक्षया वर्तमानकालानन्तानन्तभविष्यकाले, अलब्धपूर्वः पूर्वं न लब्धः न प्राप्तः जिनधों न प्राप्तः । कीदक्षाणाम् । लब्धिहीनानां क्षयोपशमलब्धिरहितानाम् ॥ ४०८॥ अथ दशप्रकारधर्मस्य माहात्म्यमभिष्टौति एदे दह-प्पयारा पावं-कम्मरस णासया भणिया । पुण्णस्स य संजणया पर पुण्णत्थं ण कायब्वा ॥ ४०९ ॥ [छाया-एते दश प्रकाराः पापकर्मणः नाशकाः मणिताः । पुण्यस्य च संजनकाः पर पुण्यार्य न कर्तव्याः ॥ एते पूर्वोक्ता दशप्रकारा उत्तमक्षमादिदशमेदभिक्षाः पापकर्मणः नाशकाः । अतोऽन्यत्पापम्।' अस द्याशुभायुनामगोत्रशानाबरणदर्शनादरणमोहनीयान्तरायस्य अशुभप्रकृतेः भ्यशीतिसंख्यायाः ८२ नाशकाः विनाशकाः स्फेटकाः क्षयकार: उपशमकाःक्षयोपशमका भणिताः कथिताः । पुनः कथंभूताः। पुण्यस्य जनकाः पुण्यकर्मणः सद्यशुभायुनर्नामगोत्रस्य पुण्यप्रकृतेः प्रशस्वशुभप्रकृतेः द्विचत्वारिंशत्संख्यायाः संजनकाः उत्पादकाः कथिताः। पर केवलं ते पूर्वोक्ताः दशविषोत्तमक्षमाविधर्माः पुण्यार्थ शुभप्रकृतिवन्धनार्थ न कर्तव्याः न कार्याः, पुण्य संसारकारणमिति हेतोः॥४.१॥ अथ पुण्यकर्ममाछो गाथाचतुष्केण निषेधयति " पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो सेण ईहिदो होदि । पुणं सुगेई-हेदु' पुण्ण-खएँणेव णिय्वाणं ॥ ४१०॥ [छाया-पुण्यम् अपि यः समिच्छति संसारः तेन इंहितः भवति । पुण्यं सुगतिहेतुः पुण्यक्षयेण एव निर्वाणम् ॥] यः पुमान् समिच्छति पाश्चत । कि त पुच अजवती मायावतीन मुला सारः चतुर्गतिलक्षणो भवः इंहितो भवति धर्म कालादि लम्धिसे हीन मिथ्यादृष्टि जीवोंको अनादि काल बीत जानेपर भी प्राप्त नहीं हुआ ॥१०॥ अर्थ-ये धर्मके दशमेद पापकर्मका नाश करनेवाले और पुण्यकर्मका बन्ध करनेवाले कहे हैं। किन्तु इन्हें पुण्यके लिये नहीं करना चाहिये ॥ भावार्थ-सातावेदनीय एक, शुभ आयु तीन--तिर्यश्चायु, मनुष्यायु, देवायु, शुभ गोत्र एक तथा नामकर्मकी शुभ प्रकृतियाँ ३७, ये ४२ तो पुण्यकर्म हैं और चारों घातिकमोंकी ४७ प्रकृतियाँ, एक असातावेदनीय, एक नरकायु, एक नीच गोत्र तथा नामकर्मकी ३४ अशुभ प्रकृतियाँ ये चौरासी पुण्य प्रकृतियाँ हैं । दशलक्षण धर्मको पापका नाश करनेवाला और • पुष्यका संचय करानेवाला कहा है । किन्तु पुण्यसंचयकी भावनासे इन दश धोका पालन नहीं करना चाहिये; क्योंकि पुण्य मी कर्मबन्ध ही है । अतः वह भी संसारका कारण है ॥ ४०९ ।। आगे चार . गायाओंसे पुण्यकर्मकी इच्छा का निषेध करते हैं । अर्थ-जो पुण्यको भी चाहता है यह संसारको चाहता है; क्यों कि पुण्य सुगतिका कारण है । पुण्यका क्षय होनेसे ही मोक्ष होता है ।। भावार्थ-समस्त कमोंसे छूट जानेका नाम ही मोक्ष है। चूंकि पुण्य भी कर्म ही है । अतः जो पुण्यको चाहता है वह संसारमें ही रहना चाहता है । आशय यह है कि जो सम्यग्दृष्टि जीव हैं उनका देव शाल और गुरुकी भक्ति रूप पुण्यकर्म भी परम्परासे मोक्षका कारण होता है । किन्तु सम्यक्त्वसे हीन जीवोंका पुण्य भी शुभकारी नहीं है । क्यों कि निदान पूर्वक बांधे गये पुण्यसे मिथ्यादृष्टि जीव दूसरे १ सर्वत्र पाव-कम्मस्स [ पाचकम्मस्स]। २म अगाव ग गइहे । ३० मसग ()। कम सग समेगे ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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