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________________ -३३८] १२. धर्मानुप्रेक्षा २४३ चोराभ्यो चोरवा यदस्तु चोरयित्वा आनीत तद्वस्तु यत् मूल्यादिना गृह्णाति तत् तदाहृतादानम् । २ । बहुमूल्यानि वस्तूनि अल्पमूल्येन नेव गृहीतध्यानि । अल्पमूल्यानि वस्तुनि बहुमूल्येन नेव.दातव्यानि । राज्ञः आशादिकरणं यदविरुद्ध कर्म तत् राज्यमुच्यते । उचितमूल्यात अनुचितदानम् अनुचितग्रहणं च अतिक्रमः । विद्वराज्ये अतिक्रमः यस्मात्कारणात् राशा घोषणा अन्यथा दापिता दानमादानं च अन्यथा करोति स बिरुवराज्यातिक्रमः । अथवा राजघोषणा विनापि मणिको व्यापार कुर्वन्ति । व्यापार ६दि राजा पिमन्यता राज्याभिः । ३ । प्रस्थः चतुःसेरमान तत्काडादिना घटितं मानमुच्यते । उन्मानं तुलामाने, मान चोन्मानं च मानोन्मानम्, एताभ्यां हीनाभ्यां ददाति अधिकाभ्यो गृहाति हीनाधिकमानोम्मानमुच्यते । ४ । ताम्रण घटिता रूप्येण च सुवर्णेन च घटितास्ताम्ररूप्याभ्यां च घटिता ये अम्माः तत् हिरण्यमुच्यते, तत्सहशा: केनचित् लोकवचनार्थ घटिता द्रम्माः प्रतिरूपकाः उच्यन्ते, तैः प्रतिरूपकः असत्यनाणके व्यवहारः क्रयविक्रयः प्रतिरूपकव्यवहारः । ५। एते पञ्चातिचारा अचौर्याणुनतधारिणा वर्जनीयाः । अत्र दृष्टान्साः शिवभूतिताफ्सवारिषेणादयो ज्ञातव्याः ॥ ३३५-३३६ ।। अथ ब्रह्मचर्गवतं व्याकरोति गाथाद्वयेन असुइ-मयं दुग्गंधं महिला-देहं विरच्चमाणो जो । रूपं लावणं पि य मण-मोहण कारणं मुणइ ॥ ३३७ ॥ जो मणादि पर-महिलं' जगाणी-बहिणी-सुआइ-सारिच्छे । मण-वयणे कारण वि वंभु-वई सो हवे थूलो ॥ ३३८ ॥ [छाया-अशुचिमयं दुर्गन्ध महिला देहं विराजमानः यः । रूपं लावण्यम् अपि च मनोमोहनकारणं जानाति ॥ यः मन्यते परमहिला जननीभगिनीसुतादिसदृशाम् । मनोवचनाभ्या कायेन अपि बलवती स भवेत् स्थूलः ।। ] स भव्यास्मा बारिण नामका पुत्र था । बारिषेण बड़ा धर्मात्मा तथा उत्तम श्रावक था । एक दिन चतुर्दशीकी रात्रिमें वह उपवासपूर्वक श्मशानमें कायोत्सर्गसे स्थित था । उसी दिन नगरकी वेश्या मगधसुन्दरी उचानोत्सवमें गई थी, वहां उसने सेठानीको एक हार पहने हुए देखा ! उसे देखकर उसने सोचा कि इस हारके बिना जीवन व्यर्थ है । ऐसा सोचकर वह शय्यापर जा पड़ी । रात्रिमें जब उसका प्रेमी एक चोर आया तो उसने उसे इस तरह से पड़ी हुई देखकर पूछा-'प्रिये, इस तरहसे क्यों पड़ी हो ! वेश्या बोली-'यदि सेठानीके गलेका हार लाकर मुझे दोगे तो मैं जीवित रहूँगी, अन्यथा मर जाऊँगी। यह सुनते ही चोर हार चुराने गया और अपने कौशलसे हार चुराकर निकला । हारकी चमक देखकर घररक्षकोंने तथा कोतवालने उसका पीछा किया ! चोरने पकड़े जानेके भयसे बह हार वारिषेण कुमारके आगे रख दिया और स्वयं छिप गया। कोतवालने वारिषेणके पास हार देखकर उसे ही चोर समझा और राजा श्रेणिकसे जाकर कहा । राजाने उसका मस्तक काट डालनेकी आज्ञा दे दी। चाण्डालने सिर काटनेके लिये जैसे ही तलवारका बार किया वह तलवार वारिषेणके गलेमें मलमाला बन गई। यह अतिशय सुनकर राजा श्रेणिकभी वहाँ पहुँचा और कुमारसे क्षमा मांगी । चोरने अभयदान मिलने पर अपना सब वृत्तान्त कहा ! सुनकर राजा वारिपेणसे घर चलनेका आग्रह करने लगा। किन्तु वारिषेणने घर न जाकर जिनदीक्षा ले ली ॥ ३३५-३३६ ॥ अब दो गाथाओंसे ब्रह्मचर्यत्रतका खरूप कहते हैं । अर्थ-जो स्नीके शरीरको अशुचिमय और दुर्गन्धित जानकर उसके रूप लावण्यको भी मनमें मोहको पैदा करनेवाला मानता है, तथा मन वचन और कायसे पराई स्त्रीको माता, बहिन १ग मुर्थ। २१ परिमहिला...सारिच्छा। हमसग कामेण । ४ सग यूओ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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