SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गाय३३२उसजीवान घातं नानुमोदयति । मया हिंसादिकर्मेदं समीचीन कृतं तथा करोमि करिष्यामीति पचनानुमोदनं वचनेन हर्षों वन न करोति । इति षष्टो मनः । ६ । स्वयं स्वात्मना कायेन कृत्वा प्रसकायिकानां जीवानां घातं प्राणव्यपरोपर्ण न करोति । मया हिंसा कृता हिंसा कसेमि करिष्यामीति कायेन इति न करोति । इति सप्तमो भगः ।। कायेन परजनं प्रेर्य त्रसकायिकानां प्राणिनां हिंसा पीडां बाधां प्राणन्यपरोपर्ण त्रसघातं न कारयति । इति अष्टमो मतः । ८ । खयं शरीरेण सघातं प्राणव्यपरोपणं नानुमोदयति । तत्कथम् । हिंसाकर्मणि शरीरे सोचमबलभवनं यष्टिमुष्टिपादप्रहारादिदशन, हिंसादिकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च ह प्राप्य मस्तकादिदोलनं, चौरादिकपीडाकासभक्षणभृगुपातमाशयुद्धप्रामादिषु सत्सु उत्साहपूर्वक लोचनाभ्यामवलोकन करें तद्वार्ताश्रवणेऽपि उत्साहः चेयादिककायादिचेष्टन शरीरानुमोदनादिक न कर्तव्यम् । इति नबमो भाः । । एद : तमा मनोनापयोगैः कृतकारितानुमतविक्रल्पैः प्रसजीवानां रक्षानुकम्पा दया कर्तव्या अनृतविरल्याणवतेषु ज्ञातव्याः । तथा गृहादिकार्य विना वनस्पत्यादिपञ्चस्थावरजीवबाधा न कर्तव्या । तथा अहिंसातस्य विचारता कि अमुक पुरुषसे कहकर उसजीवोंका पात कराऊँगा २ । किसीको त्रस घात करता हुआ देखकर मनमें ऐसा नहीं विचारता कि यह ठीक कर रहा है ३ । वचनसे स्वयं हिंसा नहीं करता अर्थात् कठोर अप्रिय वचन बोलकर किसीका दिल नहीं दुखाता, न कभी गुस्सेमें आकर यही कहता है कि तेरी जान लूंगा, तुझे काट डालेंगा आदि ४ । बचनसे दूसरोंको हिंसा करनेके लिये प्रेरित नहीं करता कि अमुकको मार डालो ५ । बचनसे त्रस घातकी अनुमोदना नहीं करता कि अमुक मनुष्यने अमुकको अच्छा मारा है ६ । स्वयं हाथ वगैरह से हिंसा नहीं करता ७ । हाथ धगैरहके संकेतसे दूसरोंको हिंसा करनेकी प्रेरणा नहीं करता ८ ।और न हाथ बगैरह के संकेतसे किसी हिंसकके कार्यकी सराहना ही करता है अर्थात् लकड़ी, मुष्टी और पैर वगैरहसे प्रहार करनेका संकेत नहीं करता और न हिंसाको देखकर अथवा सुनकर खुशीसे सिर हिलाता है, यदि कोई अपराधीकी भी जान लेता हो, या मल्लयुद्ध होता हो तो उसे उत्साह पूर्वक देखता नहीं रहता और न कानोंसे सुनकर ही प्रसन्न होता है ९। इसप्रकार नौ विकल्पों से स जीवोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । तथा विना आवश्यकताके जमीन खोदना, पानी बहाना, आग जलाना, हवा करना और वनस्पति काटना आदि कार्यमी नहीं करने चाहिये । अर्थात् बिना जरूरतके स्थावर जीवोंको भी पीड़ा नहीं देनी चाहिये । यह अहिंसाणुव्रत है । इसके पांच अतिचार ( दोष) भी छोड़ने चाहिये । वे अतिचार इस प्रकार है-बन्ध, वध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपाननिरोध । प्राणीको रस्सी सांकल वगैरहसे ऐसा बाँध देना, जिससे यह यथेच्छ चल फिर म सके यह बन्ध नामका अतिचार है । पालतु जानवरोंको भी जहाँ तक संभव हो खुला ही रखना चाहिये और यदि बांधना आवश्यक हो तो निर्दयतापूर्वक नहीं बाँधना चाहिये। लकड़ी, दण्डे, बेत वगैरहसे निर्दयतापूर्वक पीटना वध नामक अतिचार है। कान, नाक, अंगुलि, लिंग, आंख वगैरह अवयवोंको छेदना भेदना छेदनामका अतिचार है। किसी अवयवके विषाक्त होजानेपर दयाबुद्धिसे डाक्टरका उसे काट डालना इसमें सम्मिलित नहीं है। लोभमें आकर घोड़े बगैरहपर उचित भारसे अधिक भार लादना या मनुष्योंसे उनकी शक्ति के बाहर काम लेना अतिभारारोपण नामका अतिचार है । गाय, भैंस, बैल, घोड़ा, हाथी, मनुष्य,पक्षी वगैरह को भूख प्यास वगैरहकी पीड़ा देना अन्नपाननिरोध नामका अतिचार है। ये और इस प्रकारके अतिचार अहिंसाणुव्रतीको छोड़ने चाहिये । इस व्रतमें यमपाल नामका चाण्डाल प्रसिद्ध हुआ है। उसकी कथा इस प्रकार है-पोदनापुर नगरमें राजा महाबल राज्य करता था । राजाने अष्टाहिकाकी अष्टमीके दिनसे आए दिन तक जीववध न करनेकी घोषणा कर रखी थी। राजपुत्र बलकुमार
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy