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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० २६८
पर्वतोऽयमभिमान् धूमवत्वात् महानसवत, इत्यादि अनुमानं ज्ञानम्, तदपि नयम् । परोक्षज्ञानं बहुविधमनेक प्रकार स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागममेदं जानीहि ॥ २६७ ॥ अथ नयमेदान् निर्दिशति
सो संग्रहेण एक्को' दु-विहो वि य दव परहिंतो । तेसिं च विसेसादो पणइगम पहुदी हवे णाणं ॥ २६८ ॥
[ छाया-स संग्रहेन एकः द्विविधः अपि च द्रव्यपर्ययाभ्याम् । तयोः च विशेषात नैगमप्रभृति भवेत् ज्ञानम् ॥ ] स नः एकम् एकप्रकारे सेग्रहेण संभनयेन द्रव्यपर्याययोर्भेदमकृत्वा सामान्येन नयः एको भवति । अपि पुनः स नयः द्विविषः । काभ्याम् । द्रव्यपर्यायाभ्याम् एको द्रव्यार्थिकनयः द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः द्रव्यग्रहणप्रयोजनत्याच द्वितीयः पर्यायार्थिकः पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिको नयः, पर्यायग्रहणप्रयोजनत्वाच । देसि च तयोः द्रव्यपर्यायोक्ष द्वयोर्विशेषात् विशेषलक्षणात् ज्ञानं नयलक्षणप्रमाणं ज्ञानैकदेश वा नैगमप्रभृतिकं भवेत् । नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रण ब्दसमभिरुचैनं भूतप्रमुखज्ञानं नयरूपो बोधः स्यात् । नेगम संग्रहष्यनद्वारनमास्त्रयो द्रष्यार्थिकाः । ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढैर्वभूता नयाश्वत्वारः पर्यायार्थिकाच इति ॥ २६८ ॥
जो साहदि सामण्णं अविणा-भूदं विसेस रूदेहिं ।
जाणा - जुत्ति बलादो दवत्थो सो णओ होदि ॥ २६९ ॥
[ छाया-यः कययति सामान्यम् अविनाभूतं विशेषस्यैः । नानायुकिबलात् द्रव्यार्थः स नयः भवति ॥ ] यः नयः साधयति विषयीकरोति गृहातीत्यर्थः । किं तद् । सामान्यं निर्विशेष सत्वं द्रव्यत्वात्मत्यादिरूपम् । तत् कीदृ सामान्यम् । विशेषरूपैः अविनाभूर्त जीवास्विवपुद्गलासित्वधर्मास्तित्वादिस्वभावेः अविनाभूतम् एकैकमन्तरेण न स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये अनेक भेद बतलाये हैं । यहाँ प्रन्थकारने अनुमान ज्ञानको जो नय बतलाया है वह एक नईसी बात प्रतीत होती है। क्योंकि अकलंक देव वगैरहने अनुमान ज्ञानको परोक्ष प्रमाणके मेदोंमें ही गिनाया है। और अन्य किसी भी आचार्यने उसे नय नहीं बतलाया । किन्तु जब नय हेतुवाद है तो अनुमान भी नयरूप ही बैठता है । इसके लिये अष्टसहस्रीकी कारिका १०६ देखना चाहिये ॥ २६७ ॥ आगे नयके भेद कहते हैं। अर्थ- संग्रह अर्थात् सामान्यसे नय एक है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के भेदसे दो प्रकारका है। उन्हीं दोनोंके भेद नैगम आदि ज्ञान है || भावार्थ- द्रव्य और पर्यायका भेद न करके सामान्यसे नय एक है । और द्रव्य तथा पर्याय के भेदसे नयके भी दो भेद हैं--एक द्रव्यार्थिक नय, एक पर्यायार्थिक नय । जिस नयका विषय केवल द्रव्य ही है वह द्रव्यार्थिक नय है । और जो नय केवल पर्यायको ही ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिक नय है। इन दोनों नयोंके नैगम आदि अनेक भेद हैं। नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय ये तीन द्रव्यार्थिक नय हैं। और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, एवंभूत ये चार पर्यायार्थिक नय है ॥ २६८ ॥ आगे द्रव्यार्थिक नयका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- जो नय बस्तुके विशेष रूपोंसे अविनाभूत सामान्यरूपको नाना युक्तियोंके बलसे साधता है वह द्रव्यार्थिक नय है | भावार्थ - जो नय वस्तु के सामान्य रूपको युक्तिपूर्वक ग्रहण करता है वह द्रव्यार्थिक नय है । किन्तु यह सामान्य विशेष
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से निरपेक्ष नहीं होना चाहिये। बल्कि विशेषोंका अविनाभावी, उनके विना न रहनेवाला और उनके सद्भाव में ही रहनेवाला होना चाहिये । अन्यथा वह नय सुनय न होकर दुर्नय होजायेगा । आलाप
१ स एको (१) । २ सवि । ३ स यगम ।