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________________ -२७०] १०. लोकानुप्रेक्षा १९३ भूयते स इत्यधिनाभूतं सहभूतमित्यर्थः । कुतः । नानायुक्कियलात् अनेकतर्कशानादिखलात् सध्यार्थिकःनयो सातव्यो भवति । तथाहि । काँपाधिनिरपेक्षशजव्यार्थिकः, यथा संसारी जीयः सिद्धसहक शुद्धात्मा। १। उत्पादच्ययगीणस्वेन सत्ताप्राइकशुद्धदम्मार्थिकः, यथा द्रव्यं नित्यम् । २ । भेदकल्पनानिरपेक्षशुद्धाव्यार्थिकः, यथा निजगुणपर्यायखभावात् द्रव्यमभिन्नम्। ३ । कर्मोपाधिसापेक्ष-अशुद्धद्रन्याधिकः, यथा क्रोधादिकमंजमावः आत्मा।४। उत्पादश्ययसापेक्ष-अशुद्धदव्यार्थिः, यथा एकस्मिन् समये द्रव्यम् उत्पादव्ययप्रौव्यात्मकम् । ५ । मेदकल्पनासापेक्ष -अशुद्धन्यायिकः, यथा आत्मनः दर्शनशानादयो गुणाः । ६ । अन्वयद्रव्यायिकः, यथा गुणपर्यायखभाष द्रव्यम् । ७ । स्वदन्यादिप्रादकद्रव्यार्थिः, यया खाव्याविचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति । ८। परद्रग्यादिप्राहकदच्यार्थिकः, यथा पाद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति ।९। परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकः, यथा ज्ञानस्वरूपात्मा अत्र अनेकखभावाना मध्ये ज्ञानाख्यपरमखभावो गृहीतः।१०। इति द्रव्यार्थिकस्य दश मेदाः ॥ २६९॥ अथ पर्यायार्थिकमयं साधयति जो साहेदि विसेसे बहु-विह-सामण्ण-संजुदे सके । साहण-लिंग-वसादो पज्जय-विसओ ओ होदि ॥ २७ ॥ [छाया-यः कथयति विशेषान् बहुविधसामान्यसंयुतान् सर्वान । साधनलिङ्गवशात् पर्यय विषयः नयः भवति ॥ ] यः पर्यायार्थिको नयः साधयति साध्यसिदि कारयति । कान् । सर्वान् विशेषान् पर्यायान् उत्पादब्ययाव्यलक्षणान् । कीदृशान् । बहुविधसामान्यसंयुक्तान , बहुविधसामान्यः संयुक्कान् । अस्तित्व नित्यत्वकत्वभिमत्वादिसामान्यर नाभूतान् । कुतः साधयति । साधनलिसवशात पतानिवनाग्निसाधनधूमहेतुवशात्, पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्वात् , मिदम भिमत् धूमस्वात् । सर्व वस्तु परिणामि सदान्यथानुपपत्तेः इत्यादिहेतुषशात् । स पर्यायाथिको नयः पर्यायविशेषविषयो भवति । पद्धति में द्रव्यार्थिकके दस भेद बतलाये हैं जो इस प्रकार है-कर्मोकी उपाधिसे निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यका विषय करनेवाला नय शुद्ध द्रव्यार्थिक है । जैसे संसारी जीव सिद्धके समान शुद्ध है १ । उत्पाद व्ययको गौण करके सत्ता मात्रको ग्रहण करनेवाला शुद्ध द्रव्यार्थिक, जैसे द्रव्य नित्य है २ । भेद कल्पनासे निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक, जैसे अपने गुणपर्याय स्वभावसे द्रव्य अभिन्न है ३ | कोंकी उपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यको विषय करनेवाला नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है, जैसे आत्मा कर्मजन्य क्रोधादि भाववाला है ४ । उत्पाद व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक, जैसे एक समयमें द्रव्य उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक है ५। भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक, जैसे आत्माके दर्शन, ज्ञान आदि गुण हैं ६ । अन्वय दयार्थिक, जैसे द्रव्य गुणपर्यायस्वभाव है ७। खद्रव्य, स्वक्षेत्र आदिका ग्राहक द्रव्यार्थिक, जैसे खद्रव्य आदि चतुष्टय (चार) की अपेक्षा द्रव्य है ८ । परद्रव्य, परक्षेत्र आदिका ग्राहक द्रव्यार्थिक, जैसे परद्रव्य आदि चारकी अपेक्षा द्रव्य नहीं है ९ । परमभावका ग्राहक द्रव्यार्थिक, जैसे आत्मा ज्ञान खरूप है । यद्यपि आत्मा अनेक स्वभावयाला है किन्तु यहाँ अनेक खभावोंमेंसे ज्ञान नामक परमस्वभावको ग्रहण किया है १० । इस प्रकार द्रव्यार्थिक नयके दस भेद हैं ॥ २६९॥ आगे पर्यायार्थिक नयका स्वरूप कहते है । अर्थ-जो नय अनेक प्रकारके समान्य सहित सब विशेषोंको साधक लिंगके बलसे साधता है वह पर्यायार्थिक नय है || भावार्थ-जो नय युफिके बलसे पर्यायोंको ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिक नय है । किन्तु वे पर्याय अथवा विशेष सामान्यनिरपेक्ष नहीं होने चाहिये; अन्यथा वह दुर्नय होजायेगा । अतः अस्तित्व, नित्यत्व, एकत्व, भिन्नत्व आदि सामान्योंसे अविनाभूत उत्पाद, १-पुस्तके गाथेयं विषारमत्राभ्यत्र च लिखिता पाठभेदैः । पालान्तराणि च एवंविधानि-बिसेस संजुदे तो, नकोदोदि । २ग विसेसो । ३ग विमयो गयो।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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