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________________ ૪ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २७१ तथाहि । अनादिनित्य पर्यायार्थिकः यथा पुत्रलपर्यायो नित्यः मेर्वादिः । १ । सादिनित्यपर्यायार्थिकः यथा सिद्धजीवपर्यायो हि सादिनित्यः । २ । सत्तागौणत्वेन उत्पादव्ययग्राहक स्वभाव नित्य शुद्धपर्यायार्थिकः । यथा समयं समयं प्रति पर्यायाः विनाशिनः । २ । सत्ताखापेक्षख भाव नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकः, यथा एकस्मिन् समये प्रयात्मकः पर्यायः । ४ कर्मोपाधिनिरपेक्ष स्वभाव निमशुद्ध पर्यायार्थिकः, यथा सिद्धपर्यायसदृशाः शुद्धाः संसारिणां पर्यायाः । ५ कर्मोपाधिसापेक्ष ख भा• वानित्य अशुद्धपर्यायार्थिकः, यथा संसारिणाम् उत्पत्तिमरणे स्तः । ६ । इति पर्यायार्थिकस्य षड्मेदाः ॥ २७० ॥ अथेदानीं नयानां विशेषलक्षणं कार्त्तिकेयखाभी कथयन् सभेदे नैगमनयं व्याचष्टे जो साहेदि अदीदं वियप्ण-रूवं भविस्समङ्कं च । संप कालावसो हु 'णओ 'गमो णेओ ॥ २७१ ॥ [ छाया-यः कथयति अतीतं विकल्परूपं भविष्यमर्थ च । संप्रति कालाविष्टं स खलु नयः नैगमः ज्ञेयः ॥] स्फुटं नैगमो जयः ज्ञेयः ज्ञातव्यः । नैकं गच्छतीति निगमो विकल्पः बहुभेदः । निगमे भवो नैगमः यः नैगमनयः । अवी भूतम् अतीतार्थं विकरूपरूपं वर्तमानारोपणम् अर्थ पदार्थ वस्तु साधयति स भूतनैगमः । यथाथ वीपोत्सवदिने वर्धमानखामी मोक्षं गतः । १ । च पुनः भविध्यन्तम् अर्थम् अतीतवत् कथनं भाविनि भूतवत्कथनं भाविनैगमः, यथा भईन् सिद्ध एव । २ । संप्रतिकाला विष्टं वस्तु इदानीं वर्तमानकालाविष्टं पदार्थ साधयति स वर्तमाननैगमः । अथवा कर्तुभारब्धम् ईषसिध्वजम् अनिष्पक्षं वा वस्तु निष्पन्नषत् कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमः, यथा ओदनं पच्यते । इति व्यय और धौम्य लक्षणरूप पयोंको जो हेतुपूर्वक ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिक नय है अर्थात् पर्यायको विषय करनेवाला नय हैं । इस नयके छः भेद है - अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय, जैसे मेरु वगैरह पुलकी नित्य पर्याय है । अर्थात् मेरु पुगलकी पर्याय होते हुए भी अनादि कालसे अनन्तकाल रहता है १ । सादिनित्य पर्यायार्थिक नय, जैसे सिद्ध पर्याय सादि होते हुए मी नित्य है २ । सत्ताको गौण करके उत्पाद व्ययको ग्रहण करनेवाला निस्यशुद्ध पर्यायार्थिक, जैसे पर्याय प्रतिसमय विनाशीक है ३ । सत्ता सापेक्ष नित्यशुद्ध पर्यायार्थिक, जैसे पर्याय एक समय में उत्पाद व्यय प्रौव्यारमक है ४ । कर्मकी उपाधि से निरपेक्ष नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक, जैसे संसारी जीवोंकी पर्याय सिद्ध पर्यायके समान शुद्ध है ५ । कर्मोंपाधि सापेक्ष अनिल अशुद्ध पर्यायार्थिक, जैसे संसारी जीवोंका जन्म मरण होता है ६ ॥ २७० ॥ आगे नयके भेदोंका लक्षण कहते हुए कार्त्तिकेय स्वामी नैगमनयको कहते हैं । अर्थ-जो नय अतीत, भविष्यत् और वर्तमानको विकल्परूपसे साधता है वह नैगमनय है । भावार्थ- 'निगम' का अर्थ हैसंकल्प विकल्प । उससे होनेवाला नैगमनय है। यह नैगमनय द्रव्यार्थिक नयका भेद है। अतः इसका विषय द्रव्य है । और द्रव्य तीनों कालोंकी पर्यायोंमें अनुस्यूत रहता है । अतः जो नय द्रव्यकी अतीत कालकी पर्यायमें भी वर्तमानकी तरह संकल्प करता है, आगामी पर्याय में मी वर्तमानकी तरह संकल्प करता है और वर्तमानको अनिष्पन्न अथवा किंचित् निष्पन्न पर्याय में भी निष्पन्न रूप संकल्प करता है, उस ज्ञानको और वचनको नैगम नय कहते हैं। जो अतीत पर्याय में वर्तमानका संकल्प करता है वह भूत नैगम नय हैं। जैसे आज दीपावलीके दिन महावीर स्वामी मोक्ष गये। जो भावि पर्याय में भूतका संकल्प करता है वह भावि नैगमनय है, जैसे अर्हन्त भगवान् सिद्ध ही हैं । जो वस्तु बनाने का संकल्प किया है वह कुछ बनी हो अथवा नहीं बनी हो, उसको बनी हुईकी तरह कहना अथवा १ क मस यो गमो यो । २ व गमो (१) ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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