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१०. लोकानुप्रेक्षा भावानां खार्थिका हि ते । स्वार्थिकाच विपर्यस्ताः सकलङ्का नया यतः। तत्कथम् । तथाहि । सर्वथा एकान्तेन सद्रूपस्य म नियतार्थव्यवस्थासंकरादिदोषत्वात् , तथा सद्रूपस्य सकलशून्यताप्रसंगात, नित्यस्यैकरूपत्वात् एकरूपस्यार्थक्रियाकारिताभावः, अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः । भनित्यपक्षेऽपि निरन्वयत्वात् अर्थक्रियाकारिस्वाभावः । अयक्रिया गरिस्वाभाचे द्रष्यस्थाप्यभावः । एकस्वरूपस्सैकान्तेन विशेषाभावः, सर्वथकरूपत्वात विशेषामावे सामान्यस्याप्यभावः । 'निर्विशेष हि सामान्य भवेत्सरविषाणवतू । सामान्यरहितत्वाच विशेषसद्धयेव हि ॥ इत्यादिनिरपेक्षा नया दुर्णया: असत्यरूपा अनर्थकारिणः सन्ति । नियमेन अवश्यं मुणयादो सुनयेभ्यः सत्यरूपनयेभ्यः सकलव्यवहारसिद्धिः, सकलब्यवहाराणां भेदोपचारेण सकलवस्तुव्यवहारक्रियमाणाना ग्रहणदानगमनागमनयजनयाजनस्थापनादिम्यवहाराणा सिद्धिः निष्पत्तिर्भवति ।। २६६ ॥ अथ परीक्षज्ञानामनुमानं निर्दिशति
जं जाणिज्जइ जीवो इंदिय-बाबार-काय-चिट्ठाहिं ।
तं अणुमार्ण भण्णादि तं पि णयं बहु-विह जाण ॥ २६७ ।। [छाया-यन् जानाति जीवः इन्द्रियव्यापारकायचेष्टाभिः । तत् अनुमान भण्यते तम् अपि नम बहुमिषं जानीहि ॥] इन्द्रियव्यापारकायचेटाभिः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षु धोत्रैः मनसा च व्यापारैः गमनागमनादिलक्षण: कायचेष्टाभिः शरीराकारविशेषः जीपः आत्मा यत् मानाति तमपि अनुमाननयं ज्ञानं भगति कथयति । अथवा इखियाणा स्पर्शनादीनां व्यापाराः विषयाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दरूपाः तः जीवः यत् जानाति तद् अनुमानज्ञानं कथयति । साधनात् सभ्यविज्ञानमनुमानम्, इष्टमबाधितमसिद्ध साध्या साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः । बधा वस्तुको मानने पर उसमें अर्थक्रिया नहीं बनेगी और अर्थक्रियाके अभावमें वस्तुका ही अभाव हो जायेगा। सर्वथा अनित्य माननेपर वस्तुका निरन्वय बिनाश होजानेसे उसमें भी अक्रिया नहीं बनेगी । और अर्थक्रियाके अभावमें वस्तुका भी अभाव हो जायेगा । वस्तुको सर्वथा एकरूप माननेपर उसमें विशेष धोका अभाव हो जायेगा, और विशेषके अभाव में सामान्यका भी अभाव हो जायेगा, क्योंकि रिना विशेषका सामान्य गधेके सींगकी तरह असंभव है और बिना सामान्यके विशेष भी गधेके सींगकी तरह संभव नहीं है । अर्थात् सामान्य विशेषके बिना नहीं रहता और विशेष सामान्यके बिना नहीं रहता। अतः निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं । इस लिये सापेक्ष सुनयसे ही लोकव्यवहारकी सिद्धि होती है ॥२६॥ आगे परोधज्ञान अनुमानका खरूप कहते हैं । अर्थ-इन्द्रियोंके व्यापार और कायकी चेष्टाओंसे जो जीवको जानता है वह अनुमान ज्ञान है। यह भी नय है। इसके अनेक भेद हैं। भावार्थ-जीवद्रव्य इन्द्रियोंसे दिखाई नहीं देता । किन्तु जिस शरीरमें जीव रहता है यह शरीर हमें दिखाई देता है । उस शरीरमें आंख, नाक, कान वगैरह इन्द्रियां होती हैं । उनके द्वारा वह खाता पीता है, संधता है, जानता है, हाथ पैर हिलाता है, चलता फिरता है, बातचीत करता है, बुलानेसे आजाता है । इन सब चेष्टाओंको देखकर हम यह जान लेते हैं कि इस शरीरमें जीव है । यही अनुमान ज्ञान है । साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं । तया जो सिद्ध करनेके लिये इष्ट होता है, जिसमें कोई बाधा नहीं होती तथा जो असिद्ध होता है उसे साध्य कहते हैं । और जो साध्यके होने पर ही होता है उसके अभावमें नहीं होता उसे साधन कहते हैं । जैसे, इस पर्षतपर आग है, क्योंकि धुआं उठ रहा है जैसे रसोईघर । यह अनुमान ज्ञान है । इसमें आग साध्य है और धुआं साधन है; क्योंकि आगके होने पर ही धुआं होता है और आगके अभाव नहीं होता । अतः धुआंको देखकर आगको जान लेना अनुमान ज्ञान है । इस अनुमानके अनेक भेद परीक्षामुख वगैरहमें बतलाये हैं । अथवा परोक्ष ज्ञानके