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________________ - २९० ] ११. बोधिदुर्लभातुप्रेक्षा २०७ योगप्रवृत्तिश्या सीमाः पाषाणभेदस्तम्भवेणुमूललाक्षारजोपमादिभागाविष्टाः अशुभाः कृष्णनील पोतलक्षणः लेयाः । कषायपरिणतयोगपरिणामा यस्य स तथोक्तः । तत्थ वि तत्रापि रत्नप्रभादिनरके भुनक्ति भुते । किं तत् । दुःखम् ॥ कीदृशम् । शारीरं शरीरोद्भवं शीतोष्णक्षुत्तृषापमको व्यष्टषष्टिलक्षन वन वतिसहस्रपञ्चशतचतुरशीतिव्याध्यादिजं, मानसं मनसो दुष्टकषायकटषीकृत चित्तपरिणामजातम् । च पुनः प्रचुर छेदनमेशन ककचन विदारणपीलनकुम्भीपाकपचनशूलारोपणखङ्गधाराचिसदृशभूमिस्पर्श वैतरणीनाम परस्परकृत्तघातासुरोदीरितादिदुःखम् । कथंभूते नरके । दुःखदे दुःखदायिनि । पुनः कीदृशे । भीमे रौद्रे घोरतरे दुःखदे नरके ॥ २८८ ॥ अथ ततो निस्सरणं तिर्यग्गतिप्राप्ति च विशृणोति ततो जिस्सरिणं पुणरवि तिरिएसु जायदे पावो' । तत्थ यि दुक्खमतं विसहृदि जीवो अणेयविहं ॥ २८९ ॥ [ छाया - ततः निःसृत्य पुनरपि तिर्यक्षु जायते पापः । तत्र अपि दुःखमनन्तं विषहते जीवः अनेकविधम् ॥ ] ततः रत्नप्रभादिनरकात् निःसृत्य पुनरपि नरकगतेः पूर्वं तिर्यङ् ततो निर्गतोऽपि तिर्यक्षु जायते मृगपशुपक्षिजलचरादिषु उत्पयते । पापम् अधर्म यथा भवति तथा । तत्थ वि तत्रापि तिर्यग्गतावपि विवहते विदोषेण सहते क्षमते । कः । जीवः संसारी प्राणी तिर्यक् । किं तत् । दुःखं अशर्म । कियन्मात्रम् । अनन्तं क्षुधातृषाभारारोपणदोहन्नशीतोष्णायन्तA रहितम् । पुनः कियत्प्रकारम् । अनेकविधं छेदनमेवनताडनसापनमरणादिपरस्परगलनाद्यनेकप्रकारम् ॥ २८९ ॥ अथ मनुष्यत्वं दुर्लभं दृष्टान्तं दर्शयति रयणं चप्प पिव मणुयत्तं सुड्डु दुलहं लहिय । मिच्छो हवेइ जीवो तत्थ वि पावं समज्जेदि ॥ २९० ॥ I लकीर के समान क्रोध, स्तम्भकी तरह कभी न नमनेवाला मान, चांसकी जड़की तरह माया और लाखके रंगकी तरह कभी न मिटनेवाला लोभ अति अशुभ होता है । अतः ऐसी कपायके उदय में कृष्ण, नील और कापोत नामकी तीन अशुभ लेश्याएं ही होती हैं। इन अशुभ लेश्याओंसे मरकर वह क्रूर तिर्यश्व रत्नप्रभा आदि नरकोंमें जन्म लेता है । वहाँ भूख, प्यास, शील, उष्णके कष्ट के साथही साथ, छेदना, भेदना, चीरना, फाडने आदिका कष्ट भोगता है; क्योंकि नारकी जीव परस्परमें एक दूसरेको अनेक प्रकारसे कष्ट देते हैं। कोल्हूमें पेलना, भाडमें भूजना, पकाना, शूलोंपर फेंक देना, तलवारके धारके समान नुकीले पत्तेवाले वृक्षोंके नीचे डाल देना, सुईकी नोकके समान नुकीली घासवाली जमीनपर डालकर खींचना, वैतरणी नदीमें डालना तथा अपनी विक्रियासे निर्मित अखरात्रोंसे परस्परमें मारना आदिके द्वारा बडा कष्ट पाते हैं। इसके सिवा तीसरे नरक तक असुर कुमार जातिकेदेव भी कष्ट पहुँचाते हैं। इस तरह नरकमें जाकर वह जीव बडा कष्ट भोगता है || २८८ ॥ आगे कहते हैं कि नरकसे निकलकर पुनः तिर्यच होता है । अर्थ- नरकसे निकलकर फिरभी तिर्यश्च गति में जन्म लेता है और पापपूर्वक वहाँ भी अनेक प्रकारका अत्यन्त दुःख सहता है ॥ भावार्थ-रमप्रभा आदि भूमिसे निकलकर यह जीव फिर भी तिर्यञ्च गतिमें जन्म लेता है । अर्थात् तिर्यगति से ही नरकमें गया था और नरकसे निकलकर भी तिर्यञ्चही होता है । तिर्यञ्च गति में भी भूख, प्यास, शीत, उष्ण, भारवहन, छेदन, भेदन, ताडन, मारण आदिका महा दुःख सहना पडता है || २८९ || आगे मनुष्यपर्यायकी दुर्लभता दृष्टान्तपूर्वक बतलाते हैं । अर्थ- जैसे चौराहेपर 1 गिरे हुए रसका हाथ आना १ म सग पीसरिक २ ब पावो (१), सपा म पा उप्परे । ४हिवि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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