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________________ ७६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ मा० १३८ = ६०१२ + अ. सु. ६०१२. मा. ६-१२ + ते सु ६०९१+ ते. बा. ६०१२ + वा. सु. ६०१२ + वा बा. ६०१२ + सा. सू. ६०१२ + सा. वा. ६०१२ + प्र. ६.६०१२ ÷ द्वि. ल. ८० + त्रि. ल. ६०+च. रू. ४० + पं. ल. २४ [ = ६६३३६]॥ प्र. [म. ] १. [म. ] ६६३३६. [.] [ल, उ. ] [ल. म.] ६६३३६ । [ प्र. म. ] ३६८५३ । [. उ.] [इ. उ. ३६०५ [फ.म.] १= ६६३३६ [ ६. स. ] १ [ फ. उ. ] ३६८५ = [ल. उ. ] [ प्र.उ. ] ३६८५ : [इ. उ. ] ट [फ.] मरणलब्ध ६६३२६ = [ल. म. ] १ ॥ मुहूर्तस्य उ. ३७७३, नं. ३६८५, १ मरण ल. उ. [प्र. = प्रमाणराशी, इ. = इच्छमराशी, फ. फलराशी, ल = लब्धराशी उत्तर, भे. अंतर्मुहूर्त, व. = उच्छ्वास, म. मरण। यहां मूल प्रतिकी संदृष्टी आधुनिक त्रैराशिक पद्धतीसे ऊपर लिखी गई है।] ॥ १३७ ॥ अथ पर्याप्तिप्यपर्याप्त्योः पर्याप्तिसंख्यां कथयति 1 लद्धियपुणे पुण्णं पाती एयक्ख - वियल-सण्णीणं । कमसो पज्जतीपं वियाणेह ॥ १३८ ॥ - पण १ [ छाया-लक्ष्ध्यपूर्ण पूर्ण पर्याप्तिः एकाक्ष विकलसे शिनाम् । चतुःपञ्चषट्कं क्रमशः पर्याप्ती : विजानीहि ॥ ] लभ्ध्यपर्याप्त जी पर्याप्त्यपूर्ण पर्याप्तम्। लब्ध्यपर्याप्तकजीवानां पर्याप्त्या व्याख्यानं परिपूर्ण जातम् । एयक्खादि इस तरह यदि वह निरन्तर एकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त में ही बार-बार जन्म लेता है तो ६६१३२ वारसे अधिक जन्म नहीं ले सकता | इसी तरह दो इन्द्रिय लब्ध्यपर्यातकों ८० बार, तेइन्द्रिय लब्ध्यपर्यासोमै ६० बार, चौइन्द्रिय लब्ध्यपर्यातकों में ४० बार और पश्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्यातकों में २४ बार, उसमें भी मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक में आठ नार, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकमें आठ बार और संज्ञी पचेन्द्रिय न्ध्यपर्याप्त में आठ बार इस तरह मिलकर पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकमें चौबीस बार निरन्तर जन्म लेता है । इससे अधिक जन्म नहीं ले सकता । एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त के निरन्तर क्षुद्र भवोंकी संख्या जो ६६१३२ बतलाई है उसका विभाग स्वामिकी अपेक्षासे इस प्रकार है- पृथिवीकाय, जलकाय, तेजकाय, वायुकाय और साधारण बनस्पतिकाय ये पांचों बादर और सूक्ष्मके मेदसे १० होते हैं। इनमें प्रत्येक वनस्पतिको मिलानेसे ग्यारह होते हैं । इन ग्यारह प्रकारके लब्ध्यपर्यातकों से एक एक मेदमै ६०१२ निरन्तर क्षुद्र भव होते हैं । अर्थात् लब्ध्यपर्याप्त जीव जो एकेन्द्रियपर्याय में ६६१३२ भव धारण करता है उन भवोंमें से ६०१२ भव पृथिवीकाय में धारण करता है, ६०१२ भव जलकायमें धारण करता है, ६०१२ भव तेजकाय में धारण करता है। इस तरह एकेन्द्रियके ग्यारहों भेदोंमें ६०१२, ६०१२ बार जन्म लेता और मरता है । इस प्रकार एक अन्तर्मुहूर्तकालमें लब्ध्यपर्याप्तक जीव ६६३३६ बार जन्म लेता है, और उतनी ही बार मरता है ॥ १३७ ॥ गाधा १३७ की संदृष्टिका खुलासा इस प्रकार हैं- (१) पृथिवीकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२ (२) पृथिवीकायिक बादरके भव ६०१२ (३) जलकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२ ( ४ ) जळकायिक बादरके भव ६०१२ + ( ५ ) तेजकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२+ (६) तेजकायिक बादरके भव ६०१२ (७) वायुकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२ (८) वायुकायिक बादरके भव ६०१२ + ( ९ ) साधारणकायिक सूक्ष्मके भत्र ६०१२ + (१०) साधारणकायिक बादरके भव ६०१२ (११) प्रत्येक वनस्पतिकायिकके भव ६०९२=६६१३२+दोइन्द्रिय लय १ व पक्षी (१) । ↓ 1
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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