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________________ ७२ लामिकार्त्तिकेयादुप्रेक्षा आहार -सरी रिंदिये णिस्लासुस्तास - भार्स - मणसाणं' | परिर्णे-वावारेसु य जाओ छ श्वेव सचीओ ॥ १३४ ॥ [te the [ खया भाहार शरीरेन्द्रियनिः श्वासोच्छ्वास भाषामनसाम् परिणतिव्यापारेषु च याः षदेव शक्तयः ।] ] आहारशरीरेन्द्रियनिःश्वासोच्छ्वासभाषामनसां व्यापारेषु ग्रहणप्रवृत्तिषु परिणतयः परिणतिः परिणमनं वा ताः पर्याशयः । जाओ गाः, छत्तीओ शक्तयः, समर्थता षडेव । एवकारात् न च पश्च सप्त च । अत्रोदारिकमै क्रियकाद्वार कशरीरनाम कमीदमप्रथमसमयमादिंकृस्वा तच्छरीरत्रय षट्पर्याप्तिपर्यायपरिणमन्नयोग्य पुरूस्कन्धान् खलरसभागेन परिणामयितुं पर्यासनामकमद्यावष्टम्भप्रभूतात्मनः शक्तिनिष्पत्तिराद्वारपर्याप्तिः । तथापरिणतपुद्गलस्कन्धानां खमार्ग अस्ध्यादि स्थिरावयवरूपेण रथभागं रुधिराद्रिवावयवरूपेण च परिणामयितुं शक्तिनिष्पत्तिः शरीरपर्याप्तिः । २ आवरणवीर्यान्तरायक्षयोपशम विजृम्भितात्मनो योग्यदेशावस्थितस्यादिविषयप्रहृणव्यापारे शक्तिनिष्पतिर्जातिनामकमदयजनितेन्द्रियपर्याप्तिः) । ३ । (माहारकवर्गणायातपुत्रस्कन्धान् उच्छ्वासरूपेण परिणाम यितुमुच्छासनिःश्वासना मकमदयजनितशक्ति निष्पतिरुच्छ्रासनिःश्वासपर्याप्तिः । ४ । (स्वर नामकर्मश्यवशाद् भाषावर्गणाया तपुत्रलस्कन्धान् सत्यासत्यो मयानुभय भाषारूपेण परिणामयितुं शक्तिनिष्पत्तिः भाषापर्याप्तिः ५ । मनोवगणायात पुगुलस्कन्धान् अक्षेपात्रनामकर्मोदय जलाघानेन "द्रयमनोरूपेण परिणामयितुं तद्रव्यमनोबलाधानेन मोईन्द्रियावरणवयन्तरा यक्षयोपशमविशेषेण गुणदोषविचारानु मनुष्योंके नौ और नारकी तथा देवोंके चार ये सब मिलकर जीव समास के ९८ अठानवें भेद होते हैं । जिनके द्वारा अथवा जिनमें जीवोंका संक्षेपसे संग्रह किया जाता है उन्हें जीवसमास कहते हैं सो इन ९८ जीवसमासों में सब संसारी जीवका समावेश हो जाता है ॥ १३३ ॥ इस प्रकार खामिकार्त्तिकेयानुपेक्षा की आचार्य शुभचंद्रकृत टीकामें अठानवें जीव समासों का वर्णन समाप्त हुआ || अब दो गाथाओंके द्वारा पर्याप्तिके भेद और लक्षण कहते हैं । अर्थ- आहार, शरीर, इन्द्रिय, धासोच्छ्रास, भाषा और मनके व्यापारोंमें परिणमन करने की जो शक्तियां हैं वे छः ही हैं ॥ भावार्थआहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्रास, भाषा, और मनके व्यापारोंमें अर्थात् प्रवृत्तियों में परिणमन करने की जो शक्तियां हैं उन्हीं को पर्याप्त कहते हैं। वे छः ही हैं। पांच नहीं हैं। उनका स्वरूप इस प्रकार है । पर्याप्त नाम कर्मके उदयसे विशिष्ट आत्माके, औदारिकशरीरनामकर्म, वैक्रियिक शरीरनामकर्म और आहारक शरीर नामकर्मके उदयके प्रथम समयसे लेकर इन तीनों शरीरों और छ: पर्यासियों रूप होने के योग्य पुत्रलस्कन्धोंको, खल भाग और रस भाग रूप परिणामानेकी शक्तिकी पूर्णताको आहार पर्याप्त कहते हैं । ११ तथा जिन स्कन्धोंको खल रूप परिणमाया हो उनको अस्थि आदि कठोर अक्यक्ष रूप और जिनको रसरूप परिणमाया हो उनको रुधिर आदि द्रव अवयव रूप परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको शरीर पर्याप्त कहते हैं ॥ २ ॥ ज्ञानावरण और वीर्यान्तरस्य कर्मके क्षयोपशमसे विशिष्ट आत्मा के जातिनाम कर्मके उदयके अनुसार योग्य देशमें स्थित रूप आदि विषयक प्रहण करने की शक्तिकी पूर्णताको इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं ॥ ३ ॥ उच्छ्रासनिःश्वासनाम कर्मका उदय होनेपर आहार वर्गणारूपसे ग्रहण किये गये पुङ्गलस्कन्धोंको वासोच्छवास रूपसे परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको उच्छासनिःश्वास पर्याप्त कहते हैं ॥ ४ ॥ खर नाम कर्मका उदय होनेसे भाषा वर्गणारूपसे ग्रहण किये गये पुलस्कन्धोंको सत्य असाय, उभय और अनुभय १ म ग सरीरेदिय । स परस्र ३ मा ४ परिणय ५ छब्वेव ३ ग मनो इन्द्रिया । C
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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