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________________ -१३६ १०. लोकानुप्रेक्षा स्मरणप्रणिधानलक्षणभाषमनःपरिणममशरुनिष्पत्तिमनःपर्याशिः ।। पानेः प्रारम्भः पूर्णताका च कथमिति चेद गोम्मटसारोकगाथामाह । 'पजतीपट्टवणं जुग तु कमेण होवि गिट्ठवर्ण । भंतोमुहाकालेपहियकमा तत्नियालावा ।।' समस्तम्खयोग्यपर्याप्तीना शरीरनामकर्मोदयप्रथमसमये एव युगपत्प्रतिष्ठापन प्रारम्भो भवति । तु पुनः । तनिष्ठापनात्यन्तहितेन क्रमेण तथापि तावन्मात्रालापेनैव भवन्ति ॥ १३४ ॥ तस्सेव कारणाणं पुग्गल-खंधाण जा हु णिप्पत्ती। सा पजती भण्णदि छन्मेया जिणवरिंदेहि ॥ १३५ ॥ [छाया-तस्याः एष कारणानी पुद्गलस्कन्धानां या खलु निष्पत्तिः । सा पर्याप्तिः भव्यते षड्भेदा जिनवरेन्द्रः ॥ तस्सेव तस्याः एव शते, कारणानां हेतुभूतानां पुलस्कन्धानां महाराशायातपुद्गलस्कन्धाना या निष्पसिः शक्तिनिष्पत्तिः समर्थतासिद्धिः, हु इति स्फुटम् , जिनखामिभिः सा पर्याप्तिर्भयते । सा कतिधा। पढ़ेदाः षट्प्रकाराः । माहारपर्याप्तिः १, शरीरपर्याप्तिः २, इन्द्रियापतिः ३, आनप्राणपर्यामिः ४, भाषापर्याप्तिः ५, मनः पर्याप्तिः ६, इति पर्याप्तयः षट् ।। १३५ ॥ अथ निtatयांतकाल एयोपकाल च लयात पजा िगिण्हंतो मणु-पज्जत्तिं ण जाव समणोदि'। ता णिव्वत्ति-अपुण्णो मणे-पुण्णो भणदे पुण्णो ।। १३६ ॥ भाषारूपसे परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको भाषापर्याप्ति कहते हैं । ५॥ मनोवर्गणारूपसे ग्रहण किये गये पुद्गल स्कन्धोंको अलोपाङ्ग नामकर्मके उदयकी सहायतासे द्रव्यमनरूपसे परिणमानेकी, तथा उस द्रव्यमनकी सहायतासे और नोइन्द्रियावरण तथा वीर्यान्तरायकर्मका क्षयोपशम होनेसे गुणदोषका विचार व स्मरण आदि व्यापाररूप भावमनकी शक्तिकी पूर्णताको मनःपर्याप्ति कहते हैं॥६॥ पर्याप्तिका आरम्भ कैसे होता है और उसके पूरे होनेमें कितना समय लगता है ! इन बातोंको गोम्म टसारमें इस प्रकार बतलाया है-पर्याप्तियोंका आरम्भ तो एकसाथ होता है किन्तु उनकी समाप्ति क्रमसे होती है । तथा प्रत्येक पर्याप्तिके पूर्ण होनेमें अन्तर्मुहूर्तकाल लगता है और वह अन्तर्मुहर्त उत्तरोत्तर अधिक २ होता है। किन्तु सामान्यसे एक अन्तर्मुहूर्त कालमें सब पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं। आशय यह है कि शरीरनामकर्मका उदय होते ही जीवके अपने योग्य समस्त पर्याप्तियोंका आरम्भ एक साथ होजाता है और समाप्ति पहले आहारपर्याप्तिकी होती है, फिर शरीरपर्याप्तिकी होती है, फिर इन्द्रियपर्याप्तिकी होती है, इस तरह क्रमसे समाप्ति होती है और सब पर्याप्तियां एक अन्तर्मुहूर्त में निष्पन्न हो जाती हैं ॥ १३४ ॥ अर्थ-उस शक्तिके कारण जो पुद्गलस्कन्ध हैं उन पुद्गलस्कन्धोंकी निम्पत्तिको ही जिनेन्द्रदेवने पर्याप्ति कहा है। उस पर्याप्तिके छ: भेद है॥ भावार्थ-ऊपर जो जीवकी छ: शक्तियां बतलाई है उन शक्तियोंके हेतुभूत जिन पुद्गलस्कन्धोंको आहार आदि वर्गणारूपसे जीव ग्रहण करता है उन पुगलस्कन्धोंका शरीर आदि रूपसे परिणत होजाना ही पर्याप्ति है। भाशय यह है पहली गायामें शक्तिरूप पर्याप्तिको बतलाया है और इस गाया उन शक्तियोंका कार्य बतलाया है । जैसे, आहारवर्गणाके द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गलस्कन्धोंको स्खलभाग और रसभाग रूप करनेकी जीवकी शक्तिकी पूर्णताका नाम आहारपर्याप्ति है । वह पर्याति शक्तिरूप है । और इस शक्तिके द्वारा पुद्गलस्कन्धोंको खल भाग और रस भाग रूप कर देना यह २ मणिदि छमैया । २म समागेदि। ३ पमस मगु- । ४ छग मण्णवे । कार्तिक १.
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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