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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १३___ [छाया-पर्याप्तिं गृहन् मनःपर्याप्ति न यावत समाप्नोति । तावनिवृत्त्यपूर्णः मनःपूर्णः भण्यते पूर्णः ॥ ] (जीकः पर्याप्ति गुण्हन सन् यावत्काल मनःपर्याप्तिं न समणोदि न समाप्तिं नयति,परिपूर्णता न यातीत्यर्थः, ता तावत्काल नित्यपर्याप्तको जीवः भण्यते मनःपूर्णः मनःपर्याप्तिपूर्णता प्राप्तो जीवः पूर्णः पर्याप्तको भण्यते । केचन नेमिचन्द्राचार्यादयः पर्यासनिईश्वपर्याप्तकालविभागमीदर्श कथयन्ति । तथा हि । 'पज्जत्तस्स य उदये णियाणियपजत्तिणिद्विदो होदि । आव सरीरमपुणे जिम्वत्तियपुग्णगो ताव ॥' पर्याप्तनामकर्मोदये सत्यकेन्द्रियविकलचतुष्कसझिजीवाः निजनिजचतुःपञ्चषट्पर्यासिभिनिष्ठिताः निष्पनशक्तयो भवन्ति । यावत् शरीरपर्याप्तिर्न निष्पना तावते च जीवाः समयोनशरीरपर्याप्तिकालान्तमुहूर्तपर्यन्तं 1 २४ नित्यपर्याप्ता इत्युच्यन्ते । नित्या पारीरनिष्पत्या अपर्याप्ता अपूर्णा नित्यपर्याप्सा इति निर्वचनात् ॥ १३६ ॥ अथलब्ध्यपर्याप्तरूपं निरूपयति उस्सासद्वारसमे भागे जो मरदि ण य समाणेदि । एको वि य पजत्ती लद्धि-अपुण्णो हवे सो दु॥१३७॥ [छाया-उच्छासाष्टादशमे भागे यः प्रियते न च समाप्नोति । एकाम् अपि पाप्ति लन्थ्यपूर्णः भवेद स तु ॥] तु पुनः, स जीवः लब्ध्यपर्याप्तको भवेत् । स कः । यो जीयः एका वि य पजत्ती एकामपि पर्याप्ति न च समाणेदि न च कार्यरूप पर्याप्ति है । अथवा यह कहना चाहिये कि यह उस शक्तिका कार्य है । इसी तरह छहों पर्याप्तियों में समझ लेना चाहिये ।। १३५ ॥ अब निर्वृत्यपर्याप्त और पर्याप्तका काल कहते हैं । अर्थजीवपर्याप्तिको ग्रहण करते हुए जबतक मनःपर्याप्तिको समाप्त नहीं करलेता तबतक निर्वृत्त्यपर्याप्त कहाजाता है । और जब मनपरिको पूर्ण कर लेता है त पर्याम कहा जाता है ॥ भावार्थपर्याप्तिको ग्रहण करता हुआ जीव जबतक मनःपर्याप्तिको पूर्ण नहीं कर लेता तबतक निर्वृत्त्यपप्तिक कहा जाता है। और जब मनःपर्याप्तिको पूर्णकर लेता है तब पूर्ण पर्याप्तक कहा जाता है। किन्तु नेमिचन्द्र आदि कुछ आचार्य पर्याप्त और नित्यपर्याप्तके कालका विभाग इस प्रकार बतलाते है-'पर्याप्त नामकर्मका उदय होनेपर जीव अपनी अपनी पर्याप्तियोंसे निष्ठित होता है। जबतक उसकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तबतक वह निर्वृत्यपर्याप्त कहा जाता है । आशय यह है कि निवृत्त्यपर्याप्तकके मी पर्याप्तनामकर्मका ही उदय होता है । अत: पर्याप्त नामकर्मका उदय होनेपर एकेन्द्रिय जीव अपनी चार पर्याप्तियोंको पूर्ण करनेकी शक्तिसे युक्त होकर उनको पूरा करनेमें लग जाता है, दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव अपनी पांच पर्याप्सियोंको पूर्ण करनेकी शक्तिसे युक्त होकर उन पांचोंको पूरा करनेमें लग जाते हैं । संन्नीपश्चेन्द्रिय जीव अपनी छ: पर्याप्तियोंको पूरा करनेकी शक्तिसे युक्त होकर उन छहोंको पूरा करनेमें लग जाता है। और जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती, अर्थात् शरीरपर्याप्तिके अन्तर्मुहर्तकालमें एक समय कम काल तक वे जीव नित्यपर्याप्त कहे जाते हैं । क्यों कि निवृत्ति अर्थात् शरीरकी निष्पत्तिसे जो अपर्याप्त यानी अपूर्ण होते हैं उन्हें निर्वृत्त्यपर्याप्त कहते हैं ऐसी निर्वृत्यपर्याप्त शब्दकी व्युत्पत्ति है। सारांश यह है कि यहां प्रन्थकारने सैनी पश्चेन्द्रिय जीवकी अपेक्षासे कयन किया है। क्योंकि मनःपर्याप्ति उसीके होती है । किन्तु अन्य ग्रन्थोंमें 'जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तबतक जीव निर्वृत्त्यपर्याप्त होता है ऐसा कथन सब जीवोंकी अपेक्षासे किया है ॥ १३६ ॥ अब लब्धपर्याप्त का स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जो जीव श्वासके अट्ठारहवें भागमें मर जाता है और एक भी पर्याप्तिको समाप्त नहीं करपाता, उसे लब्ध्यपर्याप्त १ व एका (१), लम सग एका। २मग लशियपुण्णो।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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