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फिर हाथों में वे लिखते हैं- "सर्वसंग महास्रवरूप श्री तीर्थकरने कहा है सो सस्य है। ऐसी मिश्रगुणस्थानक जैसी स्थिति कहाँ तक रखनी ? जो बात जिसमें नहीं सो करनी; और जो जिसमें है उसमें उदास रहना ऐसा व्यवहार किस प्रकारले हो मकता है ? वैश्यवेषमें और निर्धन्यभावसे रहते हुए कोटि-कोटि विचार हुआ करते हैं।" (हायनोंध १-२८) आकिवन्यतासे विचरते हुए एकान्त मौनसे जिनसवृक्ष ध्यानमे तन्मयात्मस्वरूप ऐसा कब होऊंगा ?" ( हाथनोंष १-८७ )
संवत् १९५६ में अहमदाबादमें श्रीमद्जीने श्री देवकरणजी मुनिसे कहा था - "हमने सभामें स्त्री और लक्ष्मी दोनोंका त्याग किया है, और सर्वसंगपरित्यागकी आज्ञा माताजी देगी ऐसा लगता है।" और तदनुसार उन्होंने सर्वसंगपरित्यागरूप दीक्षा धारण करनेकी अपनी माताजीसे अनुभा भी ले ली थी। परन्तु उनका शारीरिक स्वास्थ्य दिन-पर-दिन बिगड़ता गया। ऐसे ही अवसर पर किसीने उनसे पूछा- आपका शरीर कृश क्यों होता जाता है ?" श्रीमद्जीने उत्तर दिया- "हमारे दो बगीचे है, शरीर और आत्मा । हमारा पानी आत्मारूपी बगीचेमें जाता है, इससे शरीररूपी बगीचा सूख रहा है।" अनेक उपचार करने पर भी स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ । अन्तिम दिनों में एक पत्र लिखते हैं- "अत्यन्त त्वरासे प्रवास पूरा करना था, वहाँ बीचमें सेहराका मरुस्थल आ गया। सिर पर बहुत बोझ था उसे आत्मबीर्यसे जिस प्रकार अस्प कालमें सहन कर लिया जाय उस प्रकार प्रयत्न करते हुए, पैरोंने निकावित उदयरूप थकान ग्रहण की। जो स्वरूप है वह अन्यथा नहीं होता यही अद्भुत आश्चर्य है । अन्याबाध स्थिरता है ।" ( पत्रांक ९५१ )
छान्स समय
स्थिति और भी गिरती गई । शरीरका वजन १३२ पौंडसे घटकर मात्र ४३ पोड रह गया । सायद उनका अधिक जीवन कालको पसन्द नहीं था । देहत्यागके पहले दिन शामको अपने छोटे भाई मनमुखकाम आदिसे कहा - "तुम निश्चिन्त रहना। यह आत्मा शाश्वत है। अवश्य विशेष उत्तम गतिको प्राप्त होनेवाला है। तुम शान्ति और समाधिपूर्वक रहना । जो रत्नमय ज्ञानवाणी इस देहके द्वारा कही जा सकनेवाली रात्रिको ढाई बजे वे फिर बोले— "निश्चित
थी उसे कहने का समय नहीं है। तुम पुरुषार्थ करना ।" रहना, भाईका समाधिमरण हैं ।" अवसानके दिन प्रातः पौने नौ बजे कहा--" ममसुख, दुःखी न होना । में अपने आत्मस्वरूपमें लोन होता हूँ।" फिर वे नहीं बोले। इस प्रकार पाँच घंटे तक समाधिमे रहकर संवत् १९५७ की चैत्र वदी १ ( गुजराती ) मंगलवार को दोपहरके दो बजे राजकीट में इस नश्वर शरीरका त्याग करके उत्तम गतिको प्राप्त हुए। भारतभूमि एक अनुपम तत्वज्ञानी सन्तको खो बैठी उनके देहावसान के समाचारसे मुमुक्षुओं में अत्यन्त शोकके बादल छा गये। जिन-जिन पुरुषोंको जितने प्रमाणमें उन महात्माकी पहचान हुई थी उतने प्रमाणमें उनका वियोग उन्हें अनुभूत हुवा था ।
उनकी स्मृतिमें शास्त्रमालाकी स्थापना
वि० सं० १९५६ में भादों मास में परम सत्श्रुतके प्रचार हेतु बम्बई में श्रीमद्जीनं परमश्रुतप्रभावक मण्डलको स्थापना की थी। श्रीमद्जीके देहोत्सर्गके बाद उनकी स्मृतिस्वरूप 'श्री रायन्नग्रन्थमाला' की स्थापना की गई जिसके अन्तर्गत दोनों सम्प्रदायोंके अनेक सद्द्मम्योंका प्रकाशन हुवा है जो तस्वविचारकोंके लिए इस दुषमकालको बिताने में परम उपयोगी और अनन्य आधाररूप है। महात्मा गांधीजी इस संस्थाके ट्रस्टी और श्री रेवाशंकर जगजीवनदास मुख्य कार्यकर्ता थे । श्री रेवाशंकरके देहोत्सर्ग बाद संस्था
में
कुछ शिथिलता आ गई परन्तु अब उस संस्थाका काम श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगासके ट्रस्टियोंने धम्क लिया है और सुचारुरूपसे पूर्वानुसार सभी कार्य चल रहा है।
श्रीमद्जीके स्मारक
श्रीमद्जीके अनन्य भक्त आत्मनिष्ठ श्री लघुराजस्वामी (श्री लल्लुओं मुनि) की प्रेरणा श्रीमजी के स्मारकके रूपमें और भक्तिषामके रूपमें वि० सं० १९७६ की कार्तिकी पूर्णिमाको बगास स्टेशन के पास