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XIV
"तू पाहे जिस धर्मको मानता हो इसका मुझे पक्षपात नहीं, मात्र कहने का तात्पर्य यही कि जिस मार्गसे संसारमलका नाश हो उस भक्ति, उस धर्म और उस मदाचारका तू सेवन कर ।" ( पुष्पमाला - १५ ) "दुनिया मतभेद के बन्धनसे तत्त्व नहीं पा सकी " ( पत्रांक- २७ )
"जहाँ तहाँसे रागद्वेषरहित होना ही मेरा धर्म है मैं किसी गन्डमें नहीं हूँ, परन्तु आत्मामें हूँ यह मत भूलियेगा ।" ( पत्रांक-३७ )
श्रीमद्जी ने प्रीतम, अखा, छोटभ, कबीर, सुन्दरदास, सहआनन्द, मुक्तानन्द, नरसिंह मेहता आदि सन्तोंको वाणीको जहाँ-तहाँ आवर दिया है और उन्हें मार्गानुसारी जीव ( तत्वप्राप्ति के योग्य आत्मा ) कहा है। फिर भी अनुभवपूर्वक उन्होंने जैनशासनकी उत्कृष्टताको स्वीकार किया है
"श्रीमत् वीतराग भगवन्तोंका निश्चितार्थ किया हुआ ऐसा अचिन्त्य चिन्तामणिस्वरूप, परमहितकारी पर अत सर्व खानिय आत्यन्तिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप ऐसा सर्वोत्कृष्ट शाश्वतधर्म जयवन्त वर्ती विकाल जयवन्त दर्ता | उस श्रीमत् अनन्तचतुष्टयस्थित भगवानका और उस जयवन्त धर्मकाय सदैव कर्तव्य है ।" (पत्रांक-८४३ ) परम वीतराग दशा
श्रीमद्जीकी परम विदेही दशा थी। वे लिखते हैं
"एक पुराणपुरुष और पुराणपुरुषको प्रेमसम्पत्ति सिवाय हवे कुछ रुचिकर नही लगता हमें किसी पदार्थ में त्रिमात्र रही नहीं है''''हम देहधारी है या नहीं - यह याद करते हैं तब मुश्केलोसे जान पाते हैं ।" ( पत्रांक-२५५ )
"देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा निश्वल अनुभव है। क्योंकि हम भी अवश्य उसो स्थितिको पानेवाले हैं, ऐसा हमारा आत्मा अखण्डता से कहता है और ऐसा ही है, जरूर ऐसा ही है " ( पत्रांक- ३३४ )
"मशन लें कि चरमशरीरोपन इस कालमें नहीं है, तथापि अशरीरी भावसे आत्मस्थिति है तो वह भावनयसे चरमशरीरीपन नहीं, अपितु सिञ्चत्व है और यह अशरीरीभाव इस कालमें नहीं है ऐसा यहाँ कहें तो इस कालमें हम खुद नहीं है, ऐसा कहने तुल्य है ।" (पत्रांक-४११ )
अहमदाबादमें आगाखान के बेंगलेपर श्रीमद्जीने श्री लल्लूजी तथा श्री देवकरणजी मुनिको बुलाकर अन्तिम सूचना देते हुए कहा था- "हमारे और वीतरागमें मेद न मानियेगा ।" एकातचर्या, परमनिवृतिरूप कामना
मोहमयी ( बम्बई ) नगरीमें व्यापारिक काम करते हुए भी श्रीमदजी ज्ञानाराधना तो करते ही रहते थे और पत्रों द्वारा मुमुक्षुओंको शंकाओंका समाधान करते रहते थे फिर भी बीच-बीच में पेढीसे विशेष अवकाश लेकर वे एकान्त स्थान, जंगल या पर्वतों में पहुंच जाते थे । मुख्यरूपसे वे खंभात, वडवा, काविळा, उत्तरखेडा, नडियाद, बसो, रालज़ और ईश्वर में रहे थे । वे किसी भी स्थान पर बहुत गुप्तरूपसे जाते थे, फिर भी उनकी सुगन्धी छिप नहीं पाती थी । अनेक जिज्ञासु धमर उनके सत्समागमका लाभ पाने के लिए पीछे-पीछे कहीं भी पहुंच ही जाते थे। ऐसे प्रसंगों पर हुए बोषका यत्किंचित् संग्रह 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थमें 'उपदेशछाया' 'उपदेशनोंष' और 'व्याख्यानसार' के नामसे प्रकाशित हुआ है ।
यद्यपि श्रीमद्जी गृहवास व्यापारादिमें रहते हुए भी विदेहीवत् थे, फिर भी उनका अन्तरङ्ग सर्वसंगपरित्याग कर निर्ग्रन्यदशा के लिए छटपटा रहा था । एक पत्रमें वे लिखते हैं- "भरतजीको हिरनके संगसे जम्मकी वृद्धि हुई थी और इस कारणसे जड़भरत के भव में असंग रहे थे। ऐसे कारणोंसे मुझे भी असंगता बहुत ही याद आती है; और कितनी ही बार तो ऐसा हो जाता है कि उस असंगताके बिना परम दुःख होता है | यम अन्तकालमें प्राणीको दुःखदायक नहीं लगता होगा, परन्तु हमें संग दुःखदायक लगता है ।" ( पत्रांक २१७ )