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________________ " PRAGAnyon: १०. लोकानुपेक्षा Rel १०१ नरके मारका मपन्ति तेभ्यश्च द्वितीयपृषिवीनारकेभ्यः प्रथमपृथिवीनारकाः सन्तः रत्नप्रमाानानि प्रथमनर के धमालद्वितीयमूलगुणितजगणिमात्रा मारका भवन्ति -२।। एकत्रीकृत पदनारकसंख्याहीना प्रथमनरके मारकसंख्या भवति । सामान्यनारकाः सवैपूवीजाः पनाद्वितीयवर्गमूलगुणितजगच्छेमिप्रमिता भवन्ति-३ मू। हिटिंडा भयोऽधो नारका पाहतुःसा भवन्ति । प्रथमनरकदुःसाद द्वितीये नरके अनन्तगुणं दु:खम, एवं तृतीयादिषु । रमणपहा-२-1, सकरा वाज , पंक, घूम , मस्तम, सर्वनार का -२ मू ॥ १५९ ॥ कप्प-सुरा भावणया वितर-देवा तहेव जोइसिया। हुति असंल-गुणा संख-गुणा होति जोइसिया ॥१६० ।। [छावा-कल्पमराः मावनकाः व्यन्तरदेवाः तथैव ज्योतिष्काः । द्वौ भवतः असभ्यगुणौ संख्यगुणाः भवन्ति ज्योतिष्काः॥ कप्पसुरा कल्पवासिनो वेवाः षोडशस्वर्गनवप्रवेयकनवानुदिशपश्चानुत्तरजाः विमानवासिनः सुराः असंख्यातषिप्रमिताः, प्राधिकघनाकुलवृतीयमूलगुमितधेणिमात्राः-३। तेभ्यश्च वैमानिकेभ्यः देवेभ्यः असंख्यातगुणा असुरजमारादिदयविषा भवनवासिनो देवाः घनालप्रथममूलगुणितश्रेणिमात्राः - १। वेभ्यो भक्नेभ्यः असंख्यातगुणाः बिनरायनप्रकारा ध्यन्तरदेवाः, त्रिशतयोजनकृतिभकअगस्पतरमात्राः ६५:८11०। तेभ्यश्च व्यन्तररेभ्यः सूर्यचन्दमसौ प्रहनक्षत्रताका पचप्रकाराः श्योतिका संस्थातगुणा, बेसदछप्पण-घनालकृतिमागायतरमात्राः प। अत्र चतुर्णिकायदेवेषु कल्पवासिदेवता भावनन्मन्तरदेवानां द्वौ रात्री असल्यातगुणौ स्वः । व्यन्तरेभ्यः ज्योतिष्कदेवराशिः संख्यातगुणः क ३ भ-१ ये ४६५८1 1 . । इस्पल्पबहुत्वं पतम् ।। अकेन्द्रिमादिजीवा--- नामुत्कुष्ठमायुर्गाषात्रयेण निगदति ॥ १६ ॥ नरकम अनन्तगुणा दुःख है। इसी तरह तीसरे आदि नरकोंमें भी जानना ।। यहाँ जो प्रथम दितीय आदि वर्गमूल कहा है उसका उदाहरण इस प्रकार है । जैसे दो सौ छप्पनका प्रथमवर्गमूल सोलह है। क्योंकि सोलहका वर्ग दो सौ छप्पन होता है । दूसरा वर्गमूल चार है । क्योंकि चारका वर्ग १६ और १६ का वर्ग २५६ होता है। तथा तीसरा वर्गमूल दो है। अब यदि जगतश्रेणिका प्रमाण २५६ मान लिया जाये तो उसके तीसरे वर्गमूल दो का दो सौ छप्पन में भाग देनेसे १२८, दूसरे वर्गमूल ४ का भाग देनेसे चौसठ और प्रथम वर्गमूल १६ का भाग देनेसे १६ आता है । इसी तरह प्रकृतमें समझना ।। १५९ ॥ अर्थ-कल्पवासी देवोंसे भवनवासी देव और व्यन्तर देव ये दो राशियाँ तो असंख्यात गुणी हैं। तथा ज्योतिषी देव व्यन्तरोंसे संख्यातगुणे हैं ॥ भावार्थ-सोलह वर्ग, नौ अवेयक, नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानोंके घासी देवोंको कल्पवासी कहते हैं। कल्पवासी देव धनांगुलके तीसरे वर्गमूल से गुणित जगतश्रेणिके प्रमाणसे अधिक है । इन कल्पवासी देवोंसे असंख्यात गुने अमर कुमार आदि दस प्रकारके भवनवासी देव हैं । सो भवनवासी देव धनांगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण हैं । भवनवासियों से असंख्यातगुने किमर आदि आठ प्रकारके व्यन्तर देव हैं, तीन सौ योजन के वर्गका जगत्प्रतरमें भाग देनेसे जितना प्रमाण आता है उतने व्यन्तर देन हैं । व्यन्तर देवोंसे सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे ये पाँच प्रकारके ज्योतिषी देव संख्यातमुने हैं । सो दो सौ छप्पन धनागुल के बर्गका जनतातरमें भाग देनेसे जितना प्रमाण आता है उतने ज्योतिषी देव हैं। इस तरह चार निकायके देवोंमें कल्पवासी देवोंसे भवनवासी और व्यन्तर देवोंकी संख्या असंख्यात गुणी है और भ्यन्तरोंसे संख्यात गुणी ज्योतिष्क देवोंकी संख्या है । इस प्रकार अल्प बहुत्व समाप्त हुआ।॥१६॥ समते। २ व अल्पवतुरुवं । पत्तेयाणं इत्यादि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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