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________________ १२. धर्मानुभेक्षा दय-भावो वि य धम्मो हिंसा-भावो' ण भण्णदे धम्मो । इदि संदेहाभावो' णिस्संका णिम्मला होदि ॥ ४१५ ॥ [छया-दयाभावः अपि च धर्मः हिंसाभावः न भण्यते धर्मः । इति सन्देहाभावः निःशका निर्मला भवति । इति पूर्वोकप्रकारेण संदेहाभावः संशयस्य अभावः राहित्यमेव निर्मला निदोषा निःशका निःशक्ति गुणो भवति । इति किम् । दयाभावः स्थावरजङ्गमजोवरक्षणपरिणाम एव धर्मः। आप च एवकाराया हिंसाभावः यत्रोक्तजीववधपरिणामः धर्मः श्रयो न भव्यते न कथ्यते ॥ ४१५॥ अथ निष्कांक्षितगुण म्याचष्टे जो सग्ग-सुह-णिमित्तं धम्मं पायरदि दूसह-तवेहि । मोक्ख' समीहमाणो णिक्खंखा जायदे तस्स ॥ ४१६ ॥ [छाया-यः स्वर्गसुखनिमित्त धर्म न आचरति दुःसहत्तपोमिः । मोक्षं समीहमानः निःकाला जायते तस्म ।।] तस्य भष्यजीवस्य निष्कांक्षागुणो निष्कांक्षितगुणो जायते । तस्य कस्य । यः जीचः धर्म श्रावकधर्ममेकादशसम्यक्त्वादि. प्रतिमालक्षण यतिधर्मम् उसमक्षमादिदशप्रकारबतसमितिगुमिमूलोतरगुणम्पं धर्मच नाचरति न करोति न विदधातिन पालयति । किमर्थम् । स्वर्गसुखनिमित्तं देवलोकसखाय इन्द्राहमिन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्र चक्रवत्यादिमुखप्राप्त्यर्थ वा । कथंभूतः सन जीवः । मोक्ष समीहमानः सिद्धमुखं वाग्छन् सन् कर्मणां मोचन स्यात्मोपलब्धि बाञ्छन् । कैः कृत्वा । दुःसहतपोभिः दुःसाध्यानशनादितपःपरीषहोपसर्गादिकः । तथाहि इहलोकपरलोकाशारूपभोगाकांक्षा निदानत्यागेन केवलज्ञानानन्तगुणव्यक्तिरूपमोक्षार्थ दानपूजातपश्चरंणाधनुष्टानकरणं निःकालागुणो भण्यते । तथा निश्चयेन निश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपरमार्षिकवारमोत्थसुखामृतरसेन वित्तसंतोषः स एवं निःकांक्षागुण इति ॥ ४१६ ॥ अथ निर्दिचिकित्सागुणं रिकित्सते दह-विह-धम्म-जुदाणं सहाव-दुग्गंध-असुइ-देहेसु। जं जिंदणं ण कीरदि णिन्त्रिदिगिंछा गुणो सो है ॥ ४१७ ॥ अर्थ-दया भाव ही धर्म है, हिंसा भावको धर्म नहीं कहते' इस प्रकार निश्चय करके सन्देहका न होना ही निर्मल निःशंकित गुण है || भावार्थ-पूर्वोक्त प्रकारसे धर्मके स्वरूपके विषयमें सन्देहका न होना ही निःशंकित गुण है ॥ ४१५ ।। आगे निकांक्षित गुणको कहते हैं । अर्थ-दुर्धर तपके द्वारा मोक्षकी इच्छा करता हुआ जो प्राणी वर्गसुखके लिये धर्मका आचरण नहीं करता, उसके निःकांक्षित गुण होता है । भावार्थ-इस लोक और परलोकमें भोगोंकी इच्छाको त्यागकर जो केवल ज्ञान आदि अनन्त गुणोंकी अभिव्यक्तिरूप मोक्षके लिये दान, पूजा, तपश्चरण आदि करता है उसके निःकांक्षा गुण कहा है । तथा निश्चयनयसे रत्नत्रयकी भावनासे उत्पन्न हुए सच्चे आत्मिक सुखरूपी अमृतसे चित्तका संतस होना ही निःकांक्षित गुण है ।। ४१६ । आगे निर्विचिकित्सा गुणको कहते हैं। अर्थ-दस प्रकारके धर्मोसे युक्त मुनियोंके खभावसे ही दुर्गन्धित और अपवित्र शरीरकी जो निन्दा नहीं करता, उसके निर्विचिकित्सा गुण होता है ॥ भावार्थ-रस्त्रयके आराधक भन्य जीवोंके दुर्गन्धित और घृणित शरीरको देखकर धर्मबुद्धि अथवा दया भावसे घृणा न करना निर्विचिकित्सा गुण है । अथवा, 'जैन धर्ममें और सब तो ठीक है, किन्तु साधुगणोंका नंगा रहना और खान आदि न करना ठीक नहीं है। इस प्रकारके कुत्सित विचारोंको विवेकके द्वारा रोकना निर्विचिकित्सा गुण है । इस १ म (स)भावे । २ ग संदेहोऽभावो। ३लम स ग मुक्त । ४ ल म सग कीरइ । ५ गुणो तस्स (1)
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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