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स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा
[गा०४१कौलालाय सुराकार भवाय गृहप श्रेयसे वितं धर्माध्यक्ष्यायानुक्षतारम् । अषैतानष्टौ विरूपानालमतेऽतिवीर्ष वातिहलं पातिस्थूलं चातिको चातिशुकं चातिकृष्णं चातिशुल्वं चातिलोमर्श च । अशुदा अब्राह्मणास्ते प्राजापस्याः । मागधः पुंचली कितवः क्लीबोऽशूदा अबाह्मणास्ते प्राजापत्याः ।। ब्रह्मणे ब्राह्मणमासमेत इन्द्राय क्षत्रिय मरुभ्यो वैश्य तपसे शुद्र तमसे तस्कर आत्मने की कामाय पुचलम् अतिक्रुष्टाय मागधम् । गीताय सुतम् आदित्याय स्त्रियं गर्भिणीम्।" सौत्रामणी य एवंविधा सुरो पिबति ना तेन सुरा पीता भवति । सुराश्च तिस्र एष श्रुतौ संमताः, पैष्टी गौकी माधवी घेति (गोसवे ब्राह्मणो मोसनेनेवा संवत्सरान्ते मातरमप्यमिलषति) उपेहि मातरमुपेहि खसारम् इत्यादि । यज्ञेषु जीववधो धर्मो भवति किमिति क्षेपे इत्येवप्रकारा या शङ्का तस्या अकरण निःशङ्का निश्शङ्कितगुर्ण निस्सन्देहं जानीहि । आदिशब्दात् किं दिगम्बराणां मूलोत्तरगुणप्रतिपालने धर्मः, किंवा तापसानी पञ्चानिधूम्रपानसाधने कन्दमूलपत्रादिभक्षणे धर्मः। तथा जैनाभासाना श्वेताशुकादीनां सत्र भिक्षाचरणे केवलिन भुक्तिकरणे गृहिणखीणामन्यलिगिनां च मुक्तिगमनमित्वत्र किंवा धर्मः, किंवा जिन एवं देवः, किंवा ईश्वरब्रह्मविष्णुकपिलसौमतादयो देवाः, किं जिनोतसप्ततत्त्वषद्रव्यपश्चास्तिकायनवपदार्थानां श्रद्धाने धर्मः, कि वा अन्यमतजैनाभासशैवसांख्यसौगतादिकथिततत्त्वानां श्रद्धाने धर्मः, कि जैनशास्त्रोक्तः धर्मः, किंवा परमतशास्त्रोक्तः धर्मः इत्यादिशकायाः अकरण निःसन्देहः 1 सूक्ष्म जिनोक तत्त्वं हेतुभिनव इन्यते। जिनदेवजिनधर्मजिनशास्त्र तत्वादिषु अंशा रुचिः विश्वासः प्रतीतिः । रागद्वेषाधादिदोषकदम्बकम् अशानम् मसत्यवचनकारण च वीतरागसर्वज्ञानां नास्ति, ततः कारणात् तत्प्रणीते हेयोपादेयतत्वे मोक्षमार्ग धर्म गुरौ शाख्नेय भव्यैः शमा संशयः संदेहो न कर्तव्य इति निःशक्तिगुणः ॥ ४१४॥
वैदकी ऋचाओंमें लिखा है। सोम देवताके लिये हंसोका, वायुके लिये बगुलोंका, इन्द्र और अग्निके लिये सारसोंका, सूर्य देवताके लिये जलकारोंका, वरुण देवताके लिये नक्रोंका वध करना चाहिये । छ: ऋतुओं से वसन्तऋतुके लिये कपिल पक्षियोंका, प्रीष्मऋतुके लिये चिरौटा पक्षियोंका, वर्षाऋतुके लिये. तीतरोंका, शरदऋतुके लिये बत्सकोंका, हेमन्तऋतुके लिये ककर पक्षियोंका, और शिशिरऋतुके लिये विककर पक्षियोंका वध करना चाहिये । समुद्रके लिये मन्छोंका, मेघके लिये मेंडकोंका, जलोंके लिये मछलियोंका, सूर्यके लिये कुलीषय नामक पशुओंका, वरुणके लिये चकवोंका वध करना चाहिये । तथा लिखा है-सूत्रामणि यज्ञमें जो इस प्रकारकी मदिरा पीता है वह मदिरा पीकर भी मदिरा नहीं पीता । श्रुतिमें तीन प्रकारकी मदिरा ही पीने योग्य कही है-पैष्ठी गौडी और माधवी । इत्यादि मुनकर 'क्या जीववधमें धर्म हैं। इस प्रकारकी शलाका मी न होना अर्थात् जीयवधको अधर्म ही मानना निःशंकित गुण है। इसी तरह क्या जैनधर्ममें कहे हुए मूलगुण और उत्तर गुणोंका पालन करनेमें धर्म है अथवा तापसोंके पंचाग्नि तप तपने और कन्द मूल फल खानेमें धर्म है ? क्या जिनेन्द्रदेव ही. सधे देव हैं अथवा ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, कपिल, बुद्ध वगैरह सच्चे देव हैं ? क्या जैन धर्ममें कहे हुए सात तत्व, छः द्रव्य, और पाँच अस्तिकाय और नौ पदाथोंके श्रद्धानमें धर्म है, अथवा सांख्य सौगत आदि मतोंमें कहे हुए तस्वोंके श्रद्धानमें धर्म है ? इत्यादि सन्देहका न होना निःशंकित गुण है । सारांश यह है कि जिनभगवानके द्वारा प्रतिपादित तत्त्व बहुत गहन है, युक्तियोंसे उसका खण्डन नहीं किया जा सकता। ऐसा जानकर और मानकर जिनदेव, जिनशास्त्र, जिनधर्म और जैन तस्त्रों में श्रद्धा, रुचि और प्रतीति होनी चाहिये । क्योंकि मनुष्य राग द्वेष अथवा बचानसे असत्य बोलता है। वीतराग और सर्वज्ञमें ये दोष नहीं होते। अतः उनके द्वारा कहे हुए तस्वोंमें और मोक्षके मार्गमें सन्देह नहीं करना चाहिये । निःसन्देह होकर प्रवृत्ति करनेमें ही कल्याण है ॥४१४॥