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________________ -२११] १०. लोकानुप्रेक्षा छाया-जीवाः अपि तु जीवानाम् उपकार कुर्वन्ति सर्वप्रत्यक्षम् । तत्र अपि प्रधानहेतुः पुण्यं पापं च नियमेन।] अपि तु जीचा जन्सषः जीवानां जन्सूनाम् उपकार कुर्वन्ति । सर्वेषां प्रत्यक्षं यया भवति तथा जीवाः जीवानामुपपई कुर्वन्ति । तथा च सूत्रे 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् अन्योन्यम् उपकारेण जीवानां जीवा वर्तन्ते । यथा खामी मृत्यं वित. त्यायादिना उपकारं करोति, मृत्यस्तै खामिनं हितप्रतिपादनाहित प्रतिषेधादिना, आचार्यः शिष्य स्योभयलोकफलप्रदोपदेशक्रियानुष्ठानाभ्याम् , शिष्यस्त्रमानुकूल्यवृत्युपकाराधिकारैः पादमार्दनादिना च । एवं पितृपुत्रयोः श्रीभोंः मित्रमित्रयोः परस्परमुपकारसद्भावः । अपिशन्दात् अनुपकारानुभयाभ्यां वर्तन्ते । तत्थ वि तत्रापि परस्परमुपकारकरणे नियमेनावश्यं पुण्यं शुभ कर्म पापम् अधर्म कर्म प्रधानहेतु मुख्यकारणम् ॥ २१० ।। अथ पुद्गलस्थास्य महती शक्ति निरूपयति का वि अउवा दीसदि पुग्गल-दध्वस्स एरिसी' सत्ती। केवल-णाण-सहायो' विणासिदो जाइ जीवस्स ॥ २११ ॥ [छाया का अपि अपूर्वा दृश्यते पुद्गलाव्यस्य ईदृशी शक्तिः । केवलज्ञानसमावः विनाशितः यया जीवस्य ॥] पुद्गलद्रव्यस्य सुवर्णरत्रमाणिक्यरूप्यधनधान्यगृहहहादिशरीरकलत्रपुत्रमित्रादिचेतनाचेतनमिश्रपदार्थस्य पतिः कार्षि काचिदलक्ष्या अद्वितीया अपूर्वा । पुगलमूख्य बिहाय नान्यत्र लभ्यते । अपूर्वा शक्तिः समर्थता ईदृशी दृश्यते । कस्य । करते हैं यह सबके प्रत्यक्ष ही है । किन्तु उसमेंमी नियमसे पुण्य और पापकर्म कारण है || भावार्थयह सब कोई जानते हैं कि जीव मी जीवका उपकार करते हैं । तखार्य सूत्रमें भी कहा है-'परस्परोपग्रहो जीयानाम् ।' अर्थात् जीव भी परस्परमें एक दूसरेका उपकार करते हैं। जैसे खामी धन वगैरह देकर सेवकका उपकार करता है । और सेवक हितकी बात कहकर तथा अहितसे रोककर स्वागीका उपकार करता है । गुरु इस लोक और परलोकमें फल देनेवाला उपदेश देकर तथा उनके अनुसार आचरण कराकर शिष्यका उपकार करते हैं । और शिष्य गुरुकी आज्ञा पालन करके तथा उनकी सेवा शुश्रूषा करके गुरुका उपकार करते हैं। इसी तरह पिता पुत्र, पति पनि, और मित्र मित्र परस्परमें उपकार करते हैं । 'अपि' शब्दसे जीव जीवका अनुपकार भी करते हैं, और न उपकार करते हैं और न अनुपकार करते हैं। इस उपकार वगैरह करने में भी मुख्य कारण शुभ और अशुभ कर्म हैं । अर्यात् यदि जीवके शुभ कर्मका उदय होता है तो दूसरे जीव उसका उपकार करते हैं या वह स्वयं दूसरे जीवोंका उपकार करता है और यदि पाप कर्मका उदय होता है तो दूसरे जीव उसका उपकार नहीं करते हैं अथवा वह दूसरोंका उपकार नहीं करता है ।। २१० ।। आगे इस पुद्गलकी महती शक्तिको बतलाते हैं । अर्थ-युगल द्रव्यकी कोई ऐसी अपूर्व शक्ति है जिससे जीत्रका जो केवलज्ञान स्वभाव है, यह मी विनष्ट हो जाता है ।। भावार्थ-सोना, चांदी, मणि, मुक्ता, धन, धान्य, हाट,हवेली, शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि अचेतन, चेतन और चेतन अचेतन रूप पदार्थामें कोई ऐसी अपूर्व अदृश्य शक्ति है जिस पौद्गलिक शक्तिके द्वारा जीवका केवलज्ञान रूप स्वभाव विनष्ट हो जाता है । आशय यह है कि जीत्रका खभाव अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य है । किन्तु अनादिकालसे यह जीव जन्म-मरणके चक्रमें पड़ा हुआ है। इसे जो वस्तु अच्छी लगती है उससे यह राग करता है और जो वस्तु इसे बुरी लगती है उससे द्वेष करता है । इन रागरूप और द्वेषरूप परिणामोंसे नये पुलनिरूपणं ॥ धम्म त्यादि। १६ एरसी।मसबानो, सदा 1३ग विणासदो। कार्तिके
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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