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________________ १६६ सामिकार्मिकथानुमेशा [गा० २९२पुद्गलद्रव्यस्य । हसी कीडश्री शकिः । यया पुनरूद्रप्यस्य सत्या जीवस्यात्मनः केवलज्ञानस्वभावी विनाधितो याति आयते वा । जीवस्य. खरूपम् अनन्त चतुश्यं बिनाशयतीत्यर्थः । मोहाहानोत्पादस्वभावात् पुद्गलानाम् । उक्तं च । fort दिपणानिलगाया नेमामानी ! पाहिशमला जीव अप्पाहि पाहि ताई।" इति पुद्रलव्यनिरूपमाधिकारः॥११॥ अथ धमाधर्मयोः कुसमुपकारं निरूपयति धम्ममधम्मं दव्यं गमण-द्वाणाण कारणं कमसो । जीवाण पुग्गलाणं विण्णि वि लोगे-प्पमाणाणि ॥ २१२ ॥ [छाया-धर्मम् अधर्म द्रव्ये गमनस्थानयोः कारण छमशः । नीवानी पुदालानां द्वे अपि लोकप्रमाणे ॥] जीवानां पुदलानां च गममस्थानयोर्धर्मवष्यमधर्मद्रम्यं च कमेण कारणं मवति । गतिपरिणताना जीवपुद्गलानां धर्मद्रव्य गमनसहकारिकारणं भवति । सधान्तमाह। यथा मत्स्थानी जलं गमनसहकारिकारणं तथा घमोखिकायः । खयं तान् जीवपुबलान् तिष्ठतः नेव नमति । तथाहि, यथा सियो भगवान् श्रमूर्तो नि:कियस्तावेषाप्रेरकोऽपि सिद्धबदनन्तनानादिगुणखरूपोऽहमित्यादिव्यवहारेण सविकपसियमतियकानां निश्चयेन निर्विकल्पसमाधिरूपखकीयोपादान कोका बन्ध होता है। ये कर्म पौगलिक होते हैं। इन कर्मोका निमित्त पाकर जीवको नया जन्म लेना पड़ता है। नया जन्म लेनेसे नया शरीर मिलता है । शरीरमें इन्द्रियां होती है । इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको प्रहण करता है| विषयोंको ग्रहण करनेसे इष्ट विषयोंसे राग और अनिष्ट विघयोंसे देष होता है। इस तरह राग-द्वेषसे कर्मबन्ध और कर्मबन्धसे राग-द्वेषकी परम्परा चलती है। इसके कारण जीवके खाभाविक गुण विकृत होजाते हैं, इतना ही नहीं, किन्तु ज्ञानादिक गुण कोसे आकृत हो जाते हैं। कोसे नानादिक गुणोंके आकृत होजानेके कारण एक साथ समस्त द्रव्य पर्यायोंको जाननेकी शक्ति रखनेवाला जीव अल्पज्ञानी होजाता है। एक समयमें वह एक द्रव्यको एक ही स्थूल पर्यायको मामूली तौरसे जान पाता है। इसीसे ग्रन्थकारका कहना है कि उस पुद्गलकी शक्ति तो देखो जो जीषकी शक्तिको भी कुण्ठित कर देता है। पौलिक कर्मोकी शक्ति बतलाते हुए परमात्मप्रकाशमें मी कहा है-'कर्म बहुत बलवान हैं, उनको नष्ट करना बड़ा कठिन है, वे मेरुके समान अचल होते हैं और ज्ञानादि गुणसे युक्त जीवको खोटे मार्गमें डाल देते हैं' ॥ २११ ॥ आगे धर्मदव्य और अधर्मद्रव्यके उपकारको बतलाते हैं । अर्थ-धर्मद्रव्य और अधर्मव्य जीव और पुद्गलोंके क्रमसे गमनमें तथा स्थितिमें कारण होते हैं । तथा दोनों ही लोकाकाशके बराबर परिमाणवाले हैं ॥ भावार्थ-जैसे मछलियोंके गमनमें जल सहकारी कारण होता है वैसे ही गमन करते हुए जीवों और पुद्गलोंके गमनमें धर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है। किन्तु वह ठहरे हुए जीय-मुगलोंको जबरदस्ती नही चलाता है । इसका खुलासा यह है कि जैसे सिद्ध परमेष्ठी अमूर्त, निष्क्रिय और अप्रेरक होते हैं, फिर भी सिद्धकी तरह मैं अनन्त ज्ञानादि गुणखरूप हूँ इत्यादि व्यवहार रूपसे जो सिद्धोंकी सविकल्प भक्ति करते हैं, अथवा निश्चयसे निर्विकल्प समाधिरूप जो अपनी उपादान शक्ति है, उस रूप जो परिणमन करते हैं उनकी सिद्ध पद प्राप्तिमें वह सहकारी कारण होते हैं, वैसे ही अपनी उपादान शक्ति से गमन करते हुए जीव और पुगलोंकी गसिका सहकारी कारण धर्मद्रव्य है । अर्थात् गमन करनेकी शक्ति तो जीव और पुद्गल द्रव्यमें खभावसे ही है । धर्मद्रव्य उनमें वह शक्ति पैदा १रोष।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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