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________________ -२१३] १०. लोकानुप्रेक्षा कारणपरिणताना भन्यानां सिद्धगतेः सहकारिकारणं भवति. तथा निःकियोऽमृतॊऽप्रेरकोऽपि धर्मास्तिकायः खकीयोपादानकारणेन गच्छता जीवपुगलानां गतः सहकारिकारणं भवति । लोकप्रसिद्धदृष्टान्तेन तु मत्स्यावीनां जलादियदित्यभिप्रायः । अपि पुनः, स्थितिवता जीवानां पुद्गलानां च स्थितः अधर्मदव्यं सहकारिकारणं भवति । दृष्टान्तः । छाया पथिकानाम् । खयं गच्छतः जीवपुद्गलान् सो अधमास्विकामः नेच धरति । तद्यथा । खसंविसिसमुत्पासुखामृतरूप परमस्वास्थ्य यद्यपि निश्चयेन स्वरूपे स्थितिकारणं भवति । तथा "सिद्धो है सुखोई अणंतणाणादिगुणसमिद्धो है। देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुसो य" इति गाथाकथितसिद्धमतिरूपेणेह पूर्वसयिकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भध्यानां बहिरजसइकारिकारण भवति, तथैव खकीयोपादानकारणेन खयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानाम् अधर्मद्रव्य स्थितः सहकारिकारणम् । लोकव्यवहारेण तु छायावदा पृथिवीवद्वेति सत्रार्थः । बिणि विद्वे अपि धर्माधर्मे द्रव्ये लोकप्रमाणे लोकाशप्रदेशप्रमाणे स्तः। धर्मद्रव्यमसंख्येयप्रदेशप्रमितम् । अधर्मद्रव्यम् असंख्यातप्रदेशप्रमाणं च भवति ।। २१२॥ अयाकाशस्वरूप निरूपयति सयलाणं दव्वाणं जं दादं सकदे हि अवगासं । तं आयासं दुविहं लोयालोयाण भेएणं ॥ २१३ ॥ [छाया-सकलानां द्रव्याणां यत् दातुं शक्नोति हि अवकाशम् । तत् आकाशं द्विविध लोकालोकयोः भेदेन । ] तरप्रसिद्ध लोकाकाशं जानीहि। हि इति स्फुटम् । यत् लोकाकाशं सकलानां समस्तानां द्रव्यागा जोधपुद्गलधर्मादिद्रव्याणा षण्णाम् अवकाशम् अवकाशदानम् अवगाहन दातुं शक्नोति । यथा सतिः सतः स्थितिदानं ददाति। तदपि आका विविघं द्विप्रकारं लोकालोकयो देन । धर्माधर्मका ला: पुदलजीवाश्च सन्ति यावस्याकाशेस लोकाकाशः,लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोक अवकाशते इति आकाश लोकाकाश इत्यर्थः । ननु सर्वेषां द्रव्याणाम् अवगाहनशक्तिरस्ति नहीं कर देता । अतः गमनके उपादान कारण तो वे दोनों स्वयं ही है, किन्तु सहकारी कारण मात्र धर्मव्य है । अर्थात् जब वे स्वयं चलनेको होते हैं तो वह उनके चलनेमें निमित्त होजाता है । इसी तरह गमन करते हुए जीव और पुद्गल जब स्वयं ठहरनेको होते हैं तो उनके ठहरनेमें सहकारी कारण अधर्मद्रव्य है। जैसे पथिकोंके टहरनेमें वृक्षकी छाया सहकारी कारण होती है। किन्तु जैसे वृक्षकी छायाको देखकर भी यदि कोई पथिक ठहरना न चाहे तो छाया उसे बलपूर्वक नहीं ठहराती, वैसे ही अधर्म द्रव्य चलते हुए जीवों और पुद्गलोंको बलपूर्वक नहीं ठहराता है | आशय यह है कि जैसे निश्चयनयसे स्वसंवेदनसे उत्पन्न सुखामृतरूपी परमखास्थ्य ही जीवाको स्वरूपमें स्थितिका उपादान कारण होता है । किन्तु 'मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनन्तज्ञान आदि गुणोंसे समृद्ध हूँ, शरीरके बराबर हूँ, निस्य हूँ, असंख्यात प्रदेशी हूँ, अमूर्तिक हूँ' इस सरिकल्प अवस्थामें स्थित भव्यजीवोंकी स्वरूपस्थितिमें सिद्ध परमेष्ठी भी सहकारी कारण हैं, वैसे ही अपनी अपनी उपादान शफिसे स्वयं ही ठहरे हुए जीवों और पुद्गलोंके ठहरनेमें अधर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है। धर्म और अधर्म नामके दोनोंही द्रव्य लोकाकाशके बराबर हैं । अर्थात् जैसे लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी होता है वैसे ही धर्मद्रव्य मी असंख्यात प्रदेशी है और अधर्मद्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी है ॥ २१३ ॥ आगे आकाश द्रव्यका स्वरूप बतलाते हैं। अर्थ-जो समस्त द्रव्योंको अवकाश देने में समर्थ है वह आकाश द्रव्य है । यह आकाश लोक और अलोकके मेदसे दो प्रकारका है || मावार्थ-जैसे मकान उसमें रहनेवाले प्राणियोंको स्थान देता है वैसे ही जीव पुद्गल आदि समी द्रव्योंको जो स्थान देनेमें समर्थ है उसे १सय दुविहा । २म मेलिग मेदेण।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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