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___ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा
[गा - मास्तिया। नास्ति चेत्, कि केनायकाशः क्रियते यथा पाषाणादिभात् पाषाणादिपिणास प्रवेशो न। बष्णो द्रव्यानाम् आकाशस्याषणाहनाशफिरति चेत्, तर्हि तदुत्पत्तिदर्शनीया । तथा अन्येन तटस्थेन पुंसा पृच्छयते । भो, भगवन केवलज्ञानस्सानन्तभागप्रमिताकाशदश्यम्, तथाप्यनन्तभामे सर्वमध्यमप्रदेशो लोकविहति सोऽसंख्यात प्रवेशः, तत्रासैन्यातप्रदेशलोकेऽन्तानन्तजीवा: १६, तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः पुरलाः १६ स, लोकाकाशप्रमितासंख्येवकालगुणद्रव्यात, प्रत्येक मोकाशश्माणं भर्माधर्मद्वयम् इत्युकलक्षणाः पदार्थाः कथमवकाश लभन्ते इति ॥ ११३ ॥ मगवान् खामी गाथाद्वयन प्रत्युत्तरमाह
सवाणं दब्याणं अवगाहण-सत्ति' अत्थि परमस्थं ।
जह भसम-पाणियाणं जीव-पएसाण बहुयाणं ॥ २१४ ॥ [छाया-माण गमागान बगान मा भस्मपानीययोः जीवप्रदेशाला अनीहि बहुकानाम् ॥] परमार्थतः निश्चयतः सर्वेषां द्रव्याणां जीरपुद्रसपापर्माकाशकाकानां पूर्वोकप्रमितसक्योपेवानाम् अवगाइनशक्तिरखि, अवकाशदानसमर्थता विद्यते। यथा भस्मपानीययोः यथा भसमध्ये पानीपस्याबगाहोऽखि तथा गहुकाना जीवप्रदेशानाम् बाकाझे अवकाशक जानीहि। तथाहि, यथा पटाकाशख मधेसमत मल माति तवन्मानखल माति तायन्माशा शर्करा माति सावन्मात्रा निर्माति, तथा सर्षम्याणि लोकाका परस्पर सबकाशन्ते संमान्ति । तथा, एकप्रदीपप्रकाशे नानाप्रदीपप्रकाशवत्, एकबरसनागगवानके पासवर्णवत्, पारवविधा दायवत्, इत्यादिष्टान्तेन विशिधावगाहनशफियशादसंख्यातप्रदेशेऽपि लोके हर्षदायमस्मानमववाहो न विरुध्यते इति ॥ २१४॥ आकाश द्रव्य कहते हैं। लोक और अलोकके मेदसे एक ही आकाश द्रव्यके दो माग होगये हैं। जितने आकाशमें धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल और काल द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोकरकाश कहते है। क्योंकि जहाँ जीवादि द्रश्य पापे जावें वह लोक है ऐसी लोक शब्दकी न्युपधि है। और जाई जीवादि द्रव्य न पाये जायें, केवल आकाश द्रव्य ही पाया जाये उसे अलोकरकाश कहते हैं ।। २१३ ।। यहाँ शकाकार शका करता है कि सब द्रव्योंमें अवगाहन शक्ति है या नहीं ! यदि नहीं है तो कौन किसको अवकाश देता है ! और यदि है तो उसकी उत्पत्ति बतलानी चाहिये । दूसरी शङ्का यह है कि
आकाश द्रव्यको केवलबानके अविभागी प्रतिच्छेदोकें अनन्तवें भाग बतलाया है । और उसके मी अनन्तवें भाग लोकाकाश है । यह संस्थात प्रदेशी है । उस असंख्यात प्रदेशी लोकमै अनन्तानन्त जीव, जीवोंसे भी अनन्तगुने पुनल, लोकाकाशके प्रदेशोंके बराबर असंख्यात कालाश, लोकाकाशके है बराबर धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य कैसे रहते हैं ! अन्धकार खामी कार्तिकेय दो गापाओं के द्वारा इन शकाओंका समाधान करते हैं। अर्थ-वास्तवमें सभी इयोंमें परस्पर अवकाश देनेकी शक्ति है । जैसे भस्ममें और जलमें अवगाहन शक्ति है वैसे ही जीवके असंख्यात प्रदेशोंमें जानों ॥ मावार्थजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, समी द्रव्योंमें निश्चयसे अवगाहन शक्ति है। जैसे पानीसे भरे हुए धड़ेमें राख समा जाती है वैसे ही लोकाकाशमें सब द्रष्य परस्परमें एक दूसरेको अवकाश देते हैं। तथा जैसे एक दीपकके प्रकाशमें अनेक प्रदीपोंका प्रकाश समा जाता है, या एक प्रकारके रसमें बहुतसा सोना समाया रहता है अथवा पारदगुटिकामे दग्ध होकर अनेक वस्तुएँ समाविष्ट रहती है, वैसे ही विशिष्ट अवगाहन शक्तिके होनेसे असंख्यात प्रदेशी भी लोकमें सब इम्पोंके रहनेमें कोई
पसी, समबरणदासति परमवं, ग सति परमानं । मस पमझाग बाम पाण, गपशाम बाम एमा।