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________________ स्वामिकाठियाउप्रेक्षा [गा० २१०शरीराणि उस्मासनिःश्वासो चाहारवर्गणाया भवन्ति । तेजोपगंगास्कन्धेजःशरीर भवति । "भासमणषरगणादो कमेण भासामर्ण च कम्मादो । अविहम्मदम्ब होरि ति जिणेहि णिहिट ।।" भाषावर्गणास्कन्धेचतुर्विधभाषा भवन्ति । मनोवणास्कन्धैर्द्रव्यमनः । कार्माणवर्गणास्कन्धेरवविध कर्मेति जिमैनिर्दिष्टम् इति । जान संसार यावत्कालं संसार मर्यापीकृत्य जीवानां पुद्रला उपकार कुर्वन्ति । संसारमुकानां न। अपि पुनः, जीवस्य मोह ममत्वलक्षण परिणाम परिणति पुद्गलः शरीरसुवर्णहप्यगृहवस्त्राभरणादिरूपः करोति । च पुनः, अज्ञानमयं महाननित मूह पहिरास्मानं करोति ॥ २०५॥ जीवमीवानामुपकार प्रकटीकरोति जीवा वि दु जीवाणं उपयारं कुणदि सम्व-पञ्चपखं । तस्थ वि पहाण-हेऊ पुण्णं पावं च णियमेणं' ॥ २१॥ जीवित रहने में कारण होते हैं ! तथा ये मन, प्राग और अमान भूलिक है; क्योंकि भयको उत्पन्न करने वाले बज्रपात आदिके होनेसे मनका प्रतिघात होता है। और भयंकर दुर्गन्धके भयसे जब हम हथेलीसे अपना मुँह और नाक बन्द करलेते हैं अथवा जुखाम होजाता है तो प्राण अपान रुक जाते हैं यानी हम श्वास नहीले सकते । अतः ये मूर्तिक हैं, क्योंकि मूर्तिमानके द्वारा अमूर्तिकका प्रतिघात होमा असंभव हैं तथा अन्तरंग कारण साताव्दनीय और असातावेदनीय कर्मका उदय होनेपर और बाम कारण द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदिके परिपाकके निमित्तसे जो प्रीतिरूप और सैतापरूप परिणाम होते हैं उन्हें सुख और दुःख कहते हैं। आयुकर्मके उदयसे किसी एक भवमें स्थित जीवकी चासोच्छास क्रियाका जारी रहना जीवन है और उसका नष्ट होजाना मरण है। ये सुख दुःख जीवन और मरण भी पौद्गलिक हैं; क्योंकि मूर्तिमानके होनेपर ही होते हैं। ये पुद्गल केवल शरीर वगैरहकी उत्पत्ति कारण होकर जीवका ही उपकार नहीं करते, किन्तु पुल पुद्गलका मी उपकार करते हैं-जैसे राखसे कांसेके बर्तम साफ होजाते हैं, निर्मली डालनेसे गदला पानी साफ हो जाता है और आगमें गर्म करनेसे लोहा शुद्ध हो जाता है। इसी तरह औदारिक नामकर्म, वैक्रियिक मामकर्म और आहारक नामकर्मके उदपसे आहार वर्गणाके द्वारा तीनों शरीर और श्वासोच्छ्रास बनते है । तैजस नामकर्मके उदयसे तेजोवर्गणाके द्वारा तैजस शरीर बनता है, कार्मण नामकर्मके उदयसे कार्मण वर्गणाके द्वारा कार्मणशरीर बनता है। खरनाम कर्मके उदपसे भाषावर्गणाके द्वारा वचन बनता है। और मन इन्द्रियावरण कर्मक क्षयोपशमसे युक्त संजीजीवके अंगोपांग नामकर्मके उदयसे मनोवर्गणाके द्वारा द्रव्यमन बनता है । गोम्मटसारमें भी कहा है-"आहार वर्गणामे औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर तथा श्वास उच्छ्रास बनते हैं। तेजोवर्गणासे तैजसशरीर बनना है । भाषा वर्गणासे भाषा बनती है, मनोवर्गणासे द्रव्यमन बनता है और कॉर्पण वर्गणासे आठों द्रव्यकर्म बनते है ऐसा जिन भगवान ने कहा है।" इस तरह जब तक जीव संसारमें रहते हैं तब तक पुद्गल जीवोंका उपकार करते रहते हैं। किन्तु जब जीव संसारसे मुक्त होजाते हैं तब पुद्गल उनका कुछ भी उपकार नहीं करते। तथा जीवमें जो ममास्वरूप परिणाम होता है वह मी शरीर, सोना, चांदी, मकान, वस, अलकार आदि पुद्गलोंके निमित्तसे ही होता है। पुद्गल ही अज्ञानमयी भावोंसे बहिरात्माको मूद बनाता है ॥ २०९ ॥ जीवका जीवके प्रति उपकार बतलाते हैं । अर्थ-जीन मी जीवोंका उपकार १.कगड, स हेऊ, म हे । २ ग नियमेण । .
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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