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________________ -४५१] १२. धर्मानुप्रेक्षा nuk अयः शुभावो विधिर्यस्य साधुलोकस्य स प्रायः प्रकृष्टचारित्रः प्रायस्य साधु लोकस्य चित्तं यस्मिन् कर्मणि तत्त्रायश्चित्तम् आत्मशुद्धिकरम् । अथवा प्रगतः प्रणः अयः प्राय अपराधः तस्य चित्तशुद्धिः प्रायश्चितमपराधं प्राय इत्युच्यते लोकवियों तस्य मनोभवेत् तस्य शुद्धिकरं प्रायश्वितम्। तथा च प्रायश्चित्तमपदरा प्राप्तः सन् येन तपसा पूर्वकृतात् पापात् विशुष्यते पूर्वबलेः संपूर्णो भवतीति प्रायश्वितं स्यात् । तस्य कस्य । यः तपस्वी स्वयमात्मना दोषम् अपराध महात्रतादिन्यूनता करणलक्षणं न करोति न विदधाति । अपि पुनः अन्यं परे पुरुष दोषं प्रतातिचार न कारयति । दोषं कुर्वाणम् भवतासिचारमाचरन्तं न प्रेरयतीत्यर्थः । अपि पुनः अभ्यं दोषं कुर्वाणं व्रतातिचारमाचरन्तं न इच्छति न अनुमनुते । मनोवचनकायेन कृतकारितानुमतप्रकारेण व्रता तिचारादिकं दोषमपराधं स्वयं न करोति न कारयति नानुमोदयति ३ । परं प्रेरयित्वा मनसादिकेन न करोति न कारयति नानुमोदयति ३ । अयं कुर्वन्तं दृड्डा मनसादिकेन न करोति न कारयति नानुमोदयति ३ । दशप्रकारे प्रायधिनं यया चारोक्तमाह । "आलोयणपडिकमणं उभय विषेगो तहा विलस्ग्गो तब छेदो मूलं पि य परिहारो चैव सण ॥" एकान्तनिषण्णाय प्रसन्नचेतसे विज्ञातदोषदेशकालाय सूरये गुरवे तादृशेन शिष्येण विनय सहितं यथा भवत्येवमवचनशीन शिशुत्रलबुद्धिना आत्मप्रमादप्रकाशन निवेदनम् आलोचनम् । १। रात्रिभोजनपरित्यागक्तसहित पश्चमड़ाव्रतोचारणं संभावनं दिवस प्रतिक्रमणं पाक्षिकं वा । अथवा निजदोषमुच्चार्योश्चार्य मिथ्या मे दुष्कृतमस्तु इति प्रकटीकृतप्रतिक्रियं प्रतिक्रमणम् । ३ । शुद्धस्याप्यशुद्धत्वेन यत्र संदेहविपर्ययौ भवतः, अशुद्धस्यापि शुद्धत्वेन वा यत्र निश्रयो भवति, तत्र तदुभयम् आसनप्रतिक्रमणद्वयं भवति । ३ । यद्वस्तु नियमितं भवति तद्वस्तु वेषिजभाजने पतति सुखमध्ये वा स्मायाति यस्मिन् वस्तुनि गृहीते वा कषायादिकम् उत्पयते तस्य सर्वस्य वस्तुनः त्यागः क्रियते, तद्विवेकनाम प्रति १४ नियतकायस्थ दावो मनसश्व व्यागी भ्युत्सर्गः कायोत्सर्गः | ५ | उपवासादिपूर्वोकं पहूविधं पार्थ तपः सपोनामप्रायखितम् । ६ । दिवसपक्षमासादिविभागेन दीक्षाद्दापनं छेदो नाम प्रायश्वितम् । ७ पुनरद्यप्रभृति व्रतारोपण मूलप्रायश्चित्तम् । ८ । साधु लोग, उनका चित्रा जिस काममें हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । अतः जो आत्माकी विशुद्धि करता है वह प्रायश्चित्त है । अथवा 'प्रायः' माने अपराध, उसकी चित्त अर्थात् शुद्धिको प्रायश्चित्त कहते हैं । सारांश यह है कि जिस तपके द्वारा पहले किये हुए पापकी विशुद्धि होती है अर्थात् पहले के व्रतोंमें पूर्णता आती हैं उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। इस प्रकार जो मुनि मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से दोष नहीं करता उसके प्रायश्चित्त तप होता है । मुनियोंके आचारमें प्रायश्चित दस मेद कहे हैं, जो इस प्रकार हैं-आलोचन, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान । एकान्त स्थानमें बैठे हुए, प्रसन्न चित्त, और देश कालको जाननेबाले आचार्य के सामने विनयपूर्वक जाकर बच्चेकी तरह सरल चित्रासे शिष्यके द्वारा अपना अपराध निवेदन करना आलोचन नामक प्रायश्चित्त है। अपने दोषको यह कह कर 'मेरा यह दोष मिथ्या हो' उस दोष के प्रति अपनी प्रतिक्रियाको प्रकट करना प्रतिक्रमण नामका प्रायश्वित | शुद्ध वस्तु भी शुद्धताका सन्देह होनेपर या शुद्धको अशुद्ध अथवा अशुद्ध को शुद्ध सम लेने पर आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों किये जाते हैं। इसे उभय प्रायश्चित्त कहते हैं। जो वस्तु त्यागी हुई हो वह वस्तु यदि अपने भोजन में आजाये अथवा मुखमें चली जाये, तथा जिस वस्तुके ग्रहण करनेपर कषाय वगैरह उत्पन्न होती हो, उन सब वस्तुओंका व्याग किया जाता है। इसे विवेक नामका प्रायश्चित्त कहते हैं । कायोत्सर्ग करनेको व्युत्सर्ग प्रायश्चित कहते हैं । पहले कहे हुए अनशन आदि छ: बाह्य तपके करनेको तप प्रायश्चित्त कहते हैं। दिन, पक्ष और मास आदिका विभाग करके मुनिकी दीक्षा छेद देनेको छेद प्रायश्चित्त कहते हैं । पुनः दीक्षा देनेको
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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