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३२ स्वामिभकियासुमेक्षा
[ग ४५२दिक्सपक्षमासादिविभागेन दूरसः परिवर्जन परिहासामथया परिहार द्विप्रकारः गगप्रतिबद्धो, यत्र प्रश्रवणादिकं कुर्वन्ति मुनयः तत्र विष्ठति पिश्यिामप्रतः फस्या रतीनो बन्दना शोति तमा सतयः प्रतिवदनां न कुर्वन्ति । एवं या गणे किया गणप्रतिषः परिहारः । गत्र देशे धर्मों में शावते तत्र गला मीनेन तपश्चरणानुशनकरणमगणप्रतिपयः परिहारः । ९ । तथा श्रद्धाने तत्वाची परिणामः कोधादिपरित्यागो वा श्रद्धानम् । १० । तत्वाधसूत्र नम्मोपस्थापना. प्रायविसं कथितमस्ति । महावताना मूलम्छेदन विधाय पुनरपि दीक्षाप्रापणम् उपस्थापना। एतशप्रकार प्रायदि पोषानुरूप दातव्यमिति ।। ५५१॥
अह कह' वि पमादेण य दोसो अदि एदि तं पि पयडेदि ।
णिदोस-साटु-मूले दस दोस-विवजिदो' होई॥ ४५२ ॥ [छया-अथ कथमपि प्रमादेन च दोषः यदि एति तम् अपि प्रकटयति । निर्दोषसाधुमूले देशदोषविवर्जितः भवितुम् ।।] अथ अपवा यदि चेत् कथमपि प्रमादेन पश्चदशप्रमावप्रकारेण "विकहा तह य कसाया इंदियजिद्दा तहेव पणमो य । चदु पा पणमेगेनी होति पमादा हु पाणरसा ॥” इति । विश्थाः ४, कषायाः ४, इनियाणि ५, निद्रा १, प्रणया नेहः १ इति पदमप्रकारप्रमादाचरणेन दोषः अपराधः प्रतातिधारादिकः एति आगच्छति प्रामोति तमपि दोषं ब्रताविचारादिकं प्रकटयति प्रशीकरोति ।। निर्दोषसाधुमूले निर्दोषा यथोकाचारचारिणः साधवः सरिपाठकमुनयः निदोषाच ते साधवश्व निदोषसाधकः तेष साधूनां सूरिप्रमुखाणां मूले पादमूले तरने इत्यर्थः । क कर्तुम् । होर्दु भवितुं दशदोपवर्जितः भूत्वा, शेषाः आकम्पितादयः दश ते च दोषाश्च दोषाः तेषर्जितो भूत्वा । उक्तं च भगाल्याराधमाशम् । दशदोषरहितमाओवनं कर्तव्यम् । “मापिय १ अणुमानिय २ जे दिलु ३ भादरं ४ च मुहुर्म च ५ । छाणं ६ सहाउलयं ७ बहुजन मूल प्रायश्चित्त कहते हैं। कुछ दिन, कुछ पक्ष या कुछ मासके लिये मुनिको संघसे पृथक् कर देनेको परिहार प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा परिहारके दो भेद है-गणप्रतिबद्ध और अगण प्रतिबद्ध । पीछी आगे करके मुनियोंकी यन्दना करनेपर मुनिगण उसे प्रतिवन्दना नहीं करते । यह गणप्रतिबद्धपरिहार प्रायश्चित्त है। जहाँ आचार्य आज्ञा दें वहाँ जाकर मौनपूर्वक तपश्चरण करना अगणप्रतिबद्धपरिहार प्रायश्चित्त है। तस्त्रों में रुचि होना अथवा क्रोध आदिका छोड़ना श्रद्धान प्रायश्चित है । तत्वार्थसूत्रके नौवें अध्यायमें श्रद्धानके स्थानमें उपस्थापना भेद गिनाया है।
और उसका लक्षण मूल प्रायश्चित्तके समान है। अर्थात् महानतोंका मूलसे उच्छेद करके फिरसे दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है । यह दस प्रकार का प्रायश्चित्त (तत्त्वार्थसूत्रमें प्रायश्चित्तके नौ ही प्रकार बतलाये हैं ) दोषके अनुसार देना चाहिये ।। ४५१ । अर्थ-अथवा किसी प्रकार प्रमादकै वशीभूत होकर अपने चारित्रमें यदि दोष आया हो तो निदोष आचार्य, उपाध्याय अथवा साधुओंके आगे दस दोषोंसे रहित होकर अपने दोषको प्रकट करे ॥ भावार्थ-रॉच इन्द्रिया, चार विकथा (स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा, राजकथा ), चार कषाय, एक निद्रा और एक स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद है। इन प्रमादों के कारण साधुके आचारमें यदि दोष लगता है तो साधु अपने से बरे साधुओं के सामने अपने दोषकी आलोचना करता है । भगवती आराधनामें भी कहा है कि आलोचना दस दोषोंसे रहित होनी चाहिये । आलोचनाके दस दोष इस प्रकार कहे हैं-आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, प्रच्छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी । आचार्यको उपकरण आदि देकर उनकी अपने ऊपर करुणा उत्पन्न करके आलोचना करना अर्थात् उपकरण
मादर्श तु 'धर्मेनुचायते । काय । दसनासविचम्मित | होदि (१)।