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१२. धर्मानुभेक्षा ८ अब्बत तस्सेवी १० ॥" आकम्पितमुपकरणाविदानेन गुरोरनुकम्पामुत्पाद्य मालोचयति।। अनुमानित वचनानु. मान्य वा आलोचयति।२। यदृष्टं यत्रोकदर तदेवालोचयति । ३। बादरे च स्थूलदोषवालोचयति । । । सूक्ष्मम् अल्पमेर दोषमालोचयति । ५। छौ केनचित्पुरुषेण निजदोषः प्रकाशितः भगवन् याहशो दोषोऽनेन प्रकाशितस्तादृशो दोषो ममापि वर्तते इति प्रच्छनमालोचयति । ६ । शब्दाकुलं यथा भवत्येवं यथा गुरपि न शृणोति तारशे कोलाहलमध्ये आलोचयति । ७। बहूजनं बहन् गुरुजनान् प्रत्सालोचयति ।। अव्यकम् अम्यकस्य अप्रबुद्धस्स गुरोरने आलोचयति ।। तस्सेवी यो गुरुत दोर्ष सेवते तब आलोचयति । १० । ईदम्बिधमालोचन यदि पुरुष आलोचयति तदा एको गुरुः एकः आलोचकः पुमान स्त्री चेदालोचयति तदा चन्द्रसूर्यादिप्रकाशे एको गुरुः | त्रियी अथवा नौ गुरू एका श्रीति । प्रायविनमकुर्वतः पुंसः महयपि सपोऽभिप्रेतफलप्रदं न भवाति मात्र पाश्चिमागे अवार्यमा लापनको अपेचना भवति, पुस्तकपिञ्छादिपरोपकरणहणे आलोचना, परोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवबनाकरणे आलोचना, आचामाचार्यप्रयोजनेन गत्या आगमनेन आलोचना, परसंघमपृष्टा खसंघागमने आलोचना, वेशकालनियमेन अवश्यकश्यस्य प्रतविशेषस्म धर्मकथाप्रसंगेन चिस्मरणे सति पुनः करणे भालोचना स्यात् । परिन्द्रियेषु वचनाविदुःपरिणामें भेंट करनेसे प्रसन्न होकर आचार्य मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे ऐसा सोचकर आलोचना करना आफम्पित दोष है । गुरु थोडासा प्रायश्चित्त देकर मेरे ऊपर अनुग्रह करेंगे ऐसा अनुमान करके फिर आलोचना करना अनुमानित नामका दोष है। जो अपराध दूसरोंने देख लिया हो उसे तो कहे और जिस अपराधको करते हुए किसीने न देखा हो उसे न कहे, यह दृष्ट दोष है । स्थूल दोष तो कहे किन्तु सूक्ष्म दोषको न कहे, यह बादर दोष है । सूक्ष्म दोष ही कहे और स्थूल दोषको न कई यह सूक्ष्म नामका दोष है । किसी साधुको अपना दोष कहते सुनकर आचार्यसे यह कहना कि 'भगवन् जैसा दोष इसने कहा है वैसाही दोष मेरा भी है और अपने दोषको मुखसे न कहना प्रच्छन्न दोष है । कोई दूसरा न सुने इस अभिप्रायसे जब बहुत कोलाहल होरहा हो तब दोष को प्रकट करना शब्दाकुलित दोष है । अपने गुरुके सामने आलोचना करके पुनः अन्य गुरुके पास इस अभिप्रायसे आलोचना करना कि इस अपराधका प्रायश्चित्त ठीक है या नहीं, बहुजन नामा दोष है । जिस मुनिको आगमका ज्ञान नहीं है और जिसका चारित्र मी श्रेष्ठ नहीं है ऐसे मुनिके सामने आलोचना करना अध्यक्क नामका दोष है । जो गुरु स्वयं दोषी है उसके सामने अपने दोषोंकी आलोचना करना तत्सेवी नामक दोष है । इस प्रकार इन दोषोंसे रहित आलोचना करनेवाला यदि पुरुष हो तो एक गुरु और एक आलोचना करनेवाला पुरुष ये दो होना जरूरी है । और यदि आलोचना करनेवाली बी हो तो चन्द्र सूर्य वगैरहके प्रकाशमें एक गुरु और दो नियों अथवा दो गुरु और एक स्त्री होना जसरी है। जो साधु अपने दोर्कका प्रायश्चित्त नहीं करता उसकी बड़ी भारी तपस्सा भी इष्ट फल दायक नहीं होती। यहाँ कुछ दोषोंका प्रायश्चित्त बतलाते हैं-पुस्तक पीठी आदि पराये उपकरणोंको लेलेने पर आलोचना प्रायश्चित्त होता है। प्रमादवश आचार्य वचनोंक्य पालन न करनेपर आलोचना प्रायश्चित्त होता है । आचार्यसे बिना पूछे आचार्यके कामसे जाकर लौट आनेपर आलोचना प्रायश्चित्त होता है । पर संघसे बिना पूछे अपने संधमें चले बानेपर आलोचना प्रायश्चित्त होता है। देश और कालके नियमसे अवश्य करने योग्य किसी विशेष व्रतको, धर्मकथामें लग जानेसे भूल जानेपर यदि बादको कर लिया हो तो आलोचना प्रायश्चित होता है। षट्कायके जीवोंके प्रति यदि कठोर वचन निकल गया हो तो प्रतिक्रमण प्रायश्चित होता है ।
कम किमु बहु का, (स बहुवं य), योनि किमु बहुव था।