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________________ ११. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा २०५ पतेया ॥ ३॥" इति । वेषु निगोवेषु साधारणजीवेषु अनन्तकायिकेषु जीवो असति । कियत्कालम् । अनन्तकालम् । नित्यनिगोदापेक्षयानन्तानन्ताप्तीतकालपर्यन्तं चतुर्गसिनिगोदापेक्षया अर्धतृतीयपुदलपरिवर्तनकालपर्यन्तम् । ननु निगोदेषु एताबत्कालपयन्तं स्थितिमान् जीयः एतावत्कालपारमाणायुः किं वा अन्यदायुः इत्युसे पाह। 'भाउपरिहीणों' इति आयुःपरिहीनः उरलासाष्टादशैकभागलक्षणान्तमुहूर्सः खल्पायुर्विशिष्टः प्राणी । अथवा आदिपरिहीण इति पाठे आदिपरिहीनः सदैव नित्यनिगोदनासिवादादिरहितः । तथा चोकम् । “अस्थि अणता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो । भावकलंकसुपटरा णिगोदवासं णमुचंति" इति । ततः निगोवेभ्यः निःमूल्य निर्गय पृथ्वीकारिको जीवो भवति । आदिशब्दात अपकायिकतेजस्कामिक्वनस्पतिकायिका गृह्यन्ते ॥ २८४ ॥ अथ तत्र पृथ्ठयादिषु स्थितिकाल सत्वं च दुर्लभमित्यावेदयति तत्थ वि असंख-कालं बायर-सुहमेसु कुणई परियसं । चिंतामणि ख दुलहं तसत्तणं लहदि कट्टेण ॥ २८५ ॥ [छाया-तत्र अपि असंख्यकाल बादरसूक्ष्मेषु करोति परिवर्तम् । चिन्तामणिवत् दुर्लभ प्रसत्वं लभते कष्टेन ॥] तत्रापि पृथिवीकायिकापकाधिकतेजस्कायिकबायुकायिकवनस्पतिकायिकेषु । कथंभूतेषु यादरेयु स्थूलेषु सूक्ष्मेषु पृथ्वीकायादिना स्खलनादिरहितेलु च । असंख्यकालम् असंख्यातकालं परिवर्तनं परिभ्रमणं जीवः करोति । तथा चोक्तम् । काप्टेन अतिबहुतरकालेन ततः पृथ्वीकायादिपञ्चस्थावरेभ्यः निर्गय मल द्वित्रिचतु-पक्षेन्द्रियलक्षणं लभते प्राप्नोति । कीदृशं तत् । दुर्लभ दुःप्राप्य त्रसत्वं भावकोटिमिन प्राप्यते त्रसत्वमित्यर्थः । कामेव । चिन्तामणिवत् यथा चिन्तामणिरत्नं दुःप्राप्य तया त्रसत्व जीवस्य दुर्लभं भवति ॥ २८५ ॥ अथ नसेषु स्थितिकालं पछेन्द्रियल दुर्लभस्त्यिावेदयति वियलिदिएसु जायदि तत्थ वि अच्छेदि पुन्ध-कोडीओ। तसो णिस्सरिदण' कहमवि पंचिंदिओ होदि ॥ २८६ ॥ और चतुर्गतिनिगोद । जो जीव अनादिकाल से निगोदमें पड़े हुए है वे नित्यनिगोदिया कहे जाते हैं। और जो त्रस पीय प्राप्त करके निगोदमें जाते हैं उन्हें चतुर्गति निगोदिया कहते हैं। नित्यनिगोदमें तो जीव अनादिकालसे अनन्तकालतक रहता है । गोम्मटसारमें कहा है-'ऐसे अनन्त जीव हैं जिन्होंने त्रस पर्याय प्राप्त नहीं की । उनके भावकर्म बहुत निबिड होते हैं इसलिये वे निगोदको नहीं छोड़ते। नित्य निगोदसे निकलनेके विषय में दो मत पाये जाते हैं। एक मतके अनुसार तो निस निगोदिया जीव सदा निमोदमें ही रहता है और वहाँसे नहीं निकलता । दूसरे मतके अनुसार जबतक उसके भावक निबिड रहते हैं तबतक नहीं निकलता । भारकर्मके कुछ शिथिल होते ही निकल आता है। खामीकारिकयका मतभी यही जान पडता है । अत: वे कहते हैं कि प्रथम तो जीवका अनन्तकाल निगोदमें बीतता है । वहाँसे निकलकर वह पृथिवीकाय वगैरहमें जन्म लेता है। अतः अज्ञानीका अज्ञानीही बना रहता है ॥ २८४ || आगे त्रस पर्यायकी दुर्लभता बतलाते हैं । अर्थ-वहाँ मी असंख्य कालतक बादर और सूक्ष्म कायमें परिभ्रमण करता है । फिर चिन्तामणि रनकी तरह दुर्लभ त्रस पर्यायको बड़ी कठिनतासे प्राप्त करता है ॥ भावार्थ-निगोदसे पृथिवी काय वगैरहमें जन्म लेनेपरमी त्रस पर्याय आसानीसे नहीं मिलती । असंख्यात कालतक बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमें ही भटकता है । फिर कहीं बड़ी कठिनाईसे त्रस पर्याय मिलती है ।। २८५ ॥ आगे कहते हैं कि त्रस 'पर्याय पाकर भी पश्चेन्द्रिय होना दुर्लभ है । अर्थ--एकेन्द्रिय पर्यायसे निकलकर विकलेन्द्रियोंमें जन्म १० कुणय (कुणिय।)। २ व लहा। जिसम तगणीसरिऊ। ४ कहामिति । ५. पंचि दियो, लम पंचेंदिओ,ग पंचदशी।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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