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________________ -४८०] १२. धर्मानुप्रेक्षा क्षमादिभायः दशविधो धर्मः । उत्तमक्षमामादत्रार्जवसत्यशौचसंयमतपस्यागाकिंचयनह्मचर्यपरिगामः परिणतिः दशप्रकारो धर्मः कथ्यते । च पुनः, रात्रय भेदसम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मकं रमानां त्रितयं धर्मो भव्यते। च पुनः, जीवानां रक्षणो धर्मः, पमस्थावराणां सूक्ष्मवादराणां प्रसानांद्वीन्द्रियादीनां प्राणिना रक्षर्ण कृपाकरणं धो भण्यते। 'अहिंगा. लक्षणो धर्मः' इति वचनात् ॥४७८ ॥ अथ कस्य धर्मध्यानं इत्युक्ते प्ररूपयति धम्मे एयग्ग-मणो जो णवि वेदेदि पंचहा-विसयं । बेरग्ग-मओ णाणी धम्मज्झाण हवे तस्स ॥ ४७५.॥ छाया- धर्मे एकाग्रमनाः यः नव वेदयति पश्चधाविषयम् । वैराग्यमयः ज्ञानी धर्म यानं भवेत् तस्य ॥] तस्य योगिनः ध्यातुर्मव्यस्य धर्माख्यं ध्यानं भवेत् । तस्य करस्य । यो मध्यः धर्मे एकाप्रमनाः धर्म निजद्धबुद्धकस्वभावात्मभावनालक्षणे पूर्वोक्तोत्तमक्षमादिवझविधे निश्चयव्यवद्धाररत्नत्रयरूपे था । एकाग्रमना एकाप्रचितः आर्तरौद्रध्यानं परित्यज्य तदमध्यानगतचित्तः। निक्षलव धर्मे इत्यर्थः । कथंभृतः । स ध्याता इन्द्रियविषयं न वेदयति, पञ्चन्द्रियाणां समुद्भवविषयम् अर्थ नानुभवति स्पर्शनादिपञ्चन्द्रियाणा स्पर्शादिसप्तविंशतिविषयान नानुभवति न सेवते न भजते इत्यर्थः । पुनः कीदृक्षः, वैराग्यमयः संसारशरीरभोगेषु विरक्तिविरमणं देराम्य तत्पचुरे यस्य स वैराग्यमयः । प्राचुर्ये मयदप्रत्ययः । पुनः कीदृक्षः । ज्ञानी मेदज्ञानवान् ॥ ४७९ ॥ अथ धर्म यानस्योक्तमत्वं गाथात्रयेणाह सुविसुद्ध-राय-दोसो बाहिर-संकप-बमिमी धीरो। एयग्ग-मणो संतो जं चिंतइ तं पि सुह-झाणं ॥ ४८०॥ [छाया-सुषिशुद्धरागद्वेषः बाह्यसंकरपवर्जितः धीरः। एकाग्रमनाः सन् यत् चिन्तयति तदपि शुभध्यानम् ॥] तदपि शुभध्यामं धर्मध्यानं भवेत् । तत् किम् । यत् चिन्तयति । कः । सन् सत्पुरुषः भन्यवरपुण्डरीकः । कीटक सन् 1 सुविशुद्धरागद्वेषः, सुप अतिशयेन विशुद्धी शोधन प्राप्ता नाशितौ रागद्वेषौ येन स तथोकः । कोधमानमायालोभरागद्वेषादि क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य रूप आत्मपरिणामको मी धर्म कहते हैं । इसीको शास्त्रों में धर्मके दस मेद कहा है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप तीन रनोंको भी धर्म कहते हैं। तथा सब प्रकारके प्राणियोंकी रक्षा करनेको भी धर्म कहते हैं। क्यों कि ऐसा कहा है कि धर्मका लक्षण अहिंसा है ।। ४७८ ॥ आगे धर्मभ्यान किसके होता है यह बतलाते हैं ! अर्थ-जो ज्ञानी पुरुष धर्ममें एकाग्र मन रहता है, और इन्द्रियोंके विषयोंका अनुभत्र नहीं करता, उनसे सदा विरक्त रहता है, उसीके धर्मध्यान होता है ॥ भावार्थ- उपर धर्मके जो जो खरूप बतलाये हैं, जो उन्होंमें एकाग्र चित्त रहता है, अर्थात् अपने शुद्ध बुद्ध चैतन्य खरूपमें ही सदा लीन रहता है अथवा उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों और रसत्रय रूप धर्मका सदा मन वचन कायसे आचरण करता है, मन बचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे किसी मी जीव को कष्ट न पहुंचे इसका ध्यान रखता है, स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके विषयोंका कभी सेवन नहीं करता, संसार, शरीर और भोगोंसे उदासीन रहता है, उसी ज्ञानीके धर्मध्यान होता है ।। १७९ ।। आगे तीन गायाओंसे धर्मध्यानकी उत्तमता बतलाते हैं । अर्थ-राग द्वेषसे रहित जो धीर पुरुष वाश संकल्पविकल्पोंको छोड़कर एकानमन होता हुआ जो विचार करता है वह भी शुभ ध्यान है ॥ भावार्थशुभ ध्यानके लिये कुछ बातोंका होना आवश्यक है । प्रथम तो राग और द्वेषको दूर करना चाहिये । {मसगजोण वेदेदिरंदिवं विसयं। २ म स ग धम्म झा (ज्झा) णं ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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