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________________ ३६४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४७७ "विस्फुलिङ्गनि नेत्रे का भीषणाकृतिः । कम्पः स्वेदादिलिङ्गानि रौदे बाधानि केहिनाम् ॥” “क्षायोपशमिको भावः कालान्तर्मुहूर्तकम् । तुष्टाशयवश | देत द प्रशस्तावलम्बनम् ॥” तथा चारित्रसारे । 'इदं रौद्रध्यानचतुष्टयम् कृष्णनीलझागेतलेश्यावलाधानं प्रमादाधिष्ठानम् प्राक् प्रमत्तात् गुणानभूमिकमन्तर्मुहूर्त कालम् अतः परं दुर्धरत्वात् क्षायोपशमिकभाव परोक्षज्ञानत्वात औदयेिकभावं घा भावलेश्या कपाय प्रधानत्वात् नरकगतिफलम् इति । तथा च तच्चतुर्विधं रौद्रध्यानं तारतम्येन मिथ्यादृष्ट्यादिपञ्चगुणस्थानवर्तिजीवसंभवम् । तच मिध्यादृष्टीनां नरकगतिकारणमपि बद्धायुष्क विहाय सम्यग्दृष्टीनां तत्कारणं न भवति । कुतः । सदृष्टीनां विशिष्टभेदज्ञानबलेन तत्कारणभूततीत्र संकेशाभावादिति ॥ ४७६ ॥ अधार्तरौद्रध्यान परिहारेण धर्मंध्याने प्रवृत्तिं दर्शयति विणि वि असु झाणे पाव- णिहाणे य दुक्ख-संताणे । तम्ही दूरे वजह धम्मे पुणे आयरं कुणह || ४७७ || [ छाया- द्वे अपि अशुमे ध्याने पापनिधाने च दुःखसंताने । तस्मात् दूरे वर्जन धर्मे पुनः आदरं कुरुत ॥ ] वर्जस्व भो भन्या, यूयं त्यजत दूरे अत्यर्थ दरं शं परिहरत के द्वे अपि अशुने ध्याने, आर्तदाख्येयाने ड्रिंके त्यजत । किं कृत्वा । ज्ञात्वा विदित्वा । कथंभूते द्वे । पापनिधाने दुरितस्य स्थाने च पुनः दुःखसंताने नरकतिर्यग्गतिदुःखोत्पादके पुनः आदर सत्कार कुरव भो भव्य, विधेहि । क । धर्मे धर्मस्थाने आदरं खं कुरान ॥ ४७७ ॥ को धर्मः इत्युक्ते, धर्मशब्दमभिधत्ते धम्मो वत्-सहावो खमादि भावो यँ दस-विहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ ४७८ ॥ [ छाया धर्मः वस्तुस्वभावः क्षमादिभावः च दशविधः धर्मः । रात्रयं च धर्मः जीवानां रक्षणं धर्मः ॥ ] वस्तूनां खभावः जीवावीनां पदार्थानां स्वरूपो धर्मः कथ्यते । विजशुद्धबुद्धैकस्वभावात्मभावनालक्षणो वा धर्मः । च पुनः रौद्रध्यान नरकगतिका कारण है, किन्तु बद्धायुष्कोको छोड़कर शेष सम्यग्दृष्टियों के होनेवाला रौद्रध्यान नरक गतिका कारण नहीं है, क्योंकि भेदज्ञानके बलसे सम्यग्दृष्टियोंके नरकगतिका कारण तीव्र संक्केदा नहीं होता । ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थमें कहा है- 'क्रूरता, मन वचन कायकी निष्ठुरता, ठगपना, निर्दयता ये सब रौद्रके चिह्न हैं | नेत्रोंका अंगारके तुल्य होना, भ्रुकुटिका टेढ़ा रहना, भीषण आकृति होना, क्रोधसे शरीरका काँपना और पसेत्र निकल आना, ये सब रौद्रके बाह्य चिह्न होते हैं । ४७६ ॥ आगे आर्त और रौदध्यानको छोड़कर धर्मध्यान करनेकी प्रेरणा करते हैं। अर्थहै भव्य जीवों, पापके निधान और दुःखकी सन्तान इन दोनों अशुभ ध्यानोंको दूरसे ही छोड़ो और धर्मध्यानका आदर करो || भावार्थ - आचार्य कहते हैं कि आर्त और रौद्र ये दोनों अशुभ ध्यान पापके भण्डार हैं और नरकगति व तिर्यच गतिमें ले जानेवाले होनेसे दुःखोंके कारण हैं । अतः इन्हें छोड़कर धर्मध्यानका आचरण करो || ४७७ ॥ आगे धर्मका स्वरूप कहते हैं । अर्थ- वस्तु भावको धर्म कहते हैं। दस प्रकारके क्षमा आदि भावोंको धर्म कहते हैं । रत्नत्रयको धर्म कहते हैं और जीवों की रक्षा करनेको धर्म कहते हैं । भावार्थ - यहाँ आचार्यने धर्म के विविध स्वरूपोंको बतलाया है । जीव आदि पदार्थोंके खरूपका नाम धर्म है। जैसे जीव शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वरूप है । यही चैतन्य उसका धर्म है। अभिका स्वरूप उष्णता है। यही उसका धर्म है । तथा उत्तम १ क भ स ग णचा २ पुणु । 4 छ म अ । ४ म रक्स . · .
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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