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________________ scio - ३०८ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा मायालो भमिध्यात्वसम्यद्मिथ्यात्वराम्यत्वप्रकृतीनाम् उपशमात् अनुदवरूपात् प्रथमसम्यत्वमुत्पद्यते । अनादिकालमिध्यादृष्टिभव्यजीवस्य कर्मोदयात्पादितकलुषतायां सत्यां कस्मादुपशमो भवतीति चेत्, कालव्यादिकारणादिति ब्रूमः । कासी काललन्धिः कर्मष्टितो भव्यजीवः अर्धपुलपरिवर्तनकाले उहरिते सति औपशमिकसम्यक्त्वग्रहणयोग्यो भवति । अर्धपुद्रपरिवर्तनादधिके काले सति प्रथमसम्यस्वस्वीकारयोग्यो न स्यादित्यर्थः । एका कालविषरियमुच्यते । द्वितीया कालब्धिः यदा कर्मणामुत्कृष्टा स्थितिरात्मनि भवति, जघन्या वा कर्मणां स्थितिरात्मनि भवति तदा औपशमिकसम्यक्त्तव नोत्पद्यते । तर्हि औपशमिक कहा उत्पद्यते । यदा अन्तःकोटाकोटिलागरोपमस्थितिकानि कर्माणि बन्धं प्राप्नुवन्ति भवन्ति निर्मलपरिणामकारणात् सत्कर्माणि तेभ्यः कर्मभ्यः संख्येयसागरोपमसहस्रहीनाने अन्तः कोटाकोटिसागरोपमस्थितिकानि भवन्ति । तदा औपशमिकसम्म सवग्रहणयोग्य आत्मा भवति । इयं द्वितीयका ललब्धिः । अधःकरणम् अपूर्वकरण व विधाय अनिवृतिकरणस्य चरमसमये भव्यश्वातुर्गतिको मिथ्यादृष्टिः संक्षिपवेन्द्रियपर्याप्तो गर्भजो विशुद्धिवर्धमानः शुभलेश्यो २१७ अवशेष रहा हो। ऐसे जीवको ही सभ्यत्तवकी प्राप्ति होती है ॥ ३०७ ॥ आगे सम्यक्बके तीन भेदोंसे उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्रका लक्षण कहते हैं। अर्ध-सात प्रकृतियोंके उपशमसे उपशम सम्यक्त्व होता है। और इन्हीं सात प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है । किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व केवली अथवा श्रुतकेबलीके निकट कर्मभूमिया मनुष्यके ही होता है ॥ भावार्थ - मिथ्यास्त्र, सम्यग् मिथ्याल और सम्यक्त्र तथा अनन्तानुबन्धी कोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे जैसे निर्मलीके डालने से पानीकी गाद नीचे बैठ जाती है, उस तरह उपशम सम्यक्त्व होता है । जिसका उदय होनेपर, तत्त्वोंका श्रद्धान नहीं होता अथवा मिथ्यातस्त्रोंका श्रद्धान होता है उसे मोहन कहते हैं। उद होनेपर आत्मा सर्वज्ञ वीतरागके द्वारा कहे हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचारित्र रूप मोक्ष मार्गसे बिमुख और तत्वार्थ श्रद्धानसे रहित तथा हित अहितके विवेकसे शून्य मिध्यादृष्टि होता है । जब शुभ परिणामके द्वारा उस मियावी शक्तिको घटा दिया जाता है और वह आत्मा के श्रद्धानको रोकने में असमर्थ हो जाता है तो उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं । और जब उसी मिध्यात्वकी शक्ति आधी शुद्ध हो पाती है तो उसे सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं, उसके उदयसे तत्त्वोंके श्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिले हुए भाव होते हैं । मिथ्यात्वका उदय रहते हुए संसार भ्रमणका अन्त नहीं होता इस लिये मित्रको अनन्त कहा है। जो क्रोध मान माया लोभ अनन्त ( मिथ्यात्व ) से सम्बद्ध होते हैं उन्हें अनन्तानुबन्ध कहते हैं । इनकी शक्ति बडी तीव्र होती है। इसीसे ये नरकगतिमें उत्पन्न कराने में कारण हैं । इन अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्स्वमोहनीय उपशमसे (उदय न होनेसे ) प्रथमोपशम सम्यक्त्र उत्पन्न होता है। अब प्रश्न यह होता है कि जो भव्य जीव अनादिकालसे मिध्यात्व में पड़ा हुआ है और कमोंके उदयसे जिसकी आारमा कलुषित है उसके इन सात प्रकृतियोंका उपशम कैसे होता है ? इसका उत्तर यह है कि काललब्धि आदि निमित्त कारणों के उपस्थित होनेपर सम्पक्त्वकी प्राप्ति होती है। कालन्धि आदिका स्वरूप इस प्रकार है- कमसे त्रिरे हुए भव्य जीवके संसार भ्रमणका काल अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गल परावर्तन प्रमाण बाकी रहनेपर वह प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेका पात्र होता है । यदि उसके परिभ्रमणका काल अर्ध पुत्र परावर्तन से अधिक शेष होता है तो प्रथम सभ्यत्रको ग्रहण करनेके कार्तिके० २८
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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