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१८८ सामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा०२६९चलिता प्रतिपत्तिः इति संशयः संदेहः । शुक्तिकायर्या रजतज्ञानमिति विपर्यासः विपरीतः विभ्रमः । गच्छतः पुंसः तुणस्पर्शस्य सो वा शंखला पा इति ज्ञानमनध्यवसायः मोहः । इत्यादिभिर्विवर्जितं श्रुतज्ञानम् । तथा चोक्त श्रीसमन्तभद्रैः । 'स्थाद्वादकैवलज्ञाने सर्ववस्तुप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच वस्त्वन्यतम भवेत् ।।' इति ॥ २२ ॥ अथ लोकव्यवहारस्य नयात्मक दर्शयति
लोयाणं ववहारं धम्म-विवक्षाई जो पसाहेदि।
सुय-णाणस्स वियप्पो सो वि णो लिंग-संभूदो ॥ २६३ ॥ [छाया-लोकाना व्यवहार धर्मविवक्षया यः प्रसाधयति। श्रुतज्ञानस्य विकल्पः सः अपि नयः लिासंभूतः ।।] यः नाडी प्रतिवादी वा धर्मविवक्षया अस्तिनास्सिनित्यानित्यमेदामेदैकाने कायनेकखमा वकुमिच्छया लोकानां जनानो
चांदी जानना विपर्यय ज्ञान है । मार्गमें चलते हुए किसी वस्तुका पैरमें स्पर्श होने पर कुछ होगा' इस प्रकारके ज्ञानको अनध्यबसाय कहते हैं । इन तीनों मिथ्याज्ञानोंसे रहित जो ज्ञान अनेकान्त रूप वस्तुको परोक्ष जानता है वही श्रुतज्ञान है। पहले श्रुतज्ञानको परोक्ष बतलाया है, क्यों कि वह मनसे होता है तथा मतिपूर्वकही होता है । श्रुतज्ञानके दो मूल भेद है-एक अनक्षरात्मक और एक अक्षरात्मक | स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु इन चार इन्दियोंसे होनेवाले मतिज्ञानपूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है वह अनक्षत्मक श्रुतज्ञान है । तथा शब्दजन्य मतिज्ञानर्थक होनेवाले श्रुतज्ञानको अक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं । शास्त्रसे तथा उपदेश वगैरहसे जो विशेष ज्ञान होता है वह सब श्रुतज्ञान है । शाओंमें समी वस्तुओंके अनेकान्तस्वरूपका वर्णन होता है। अतः श्रुतज्ञान सभी वस्तुओंको शाम वगैरहके द्वार जानता है, किन्तु शासके बिना अथवा जिनके वचनोंका सार शास्त्रमें हैं उन प्रत्यक्षदर्शी केवलीके बिना सब वस्तुओंका झान नहीं हो सकता । इसीसे समन्तभद्र खामीने आतमीमांसामें श्रुतज्ञानका महत्व बतलाते हुए कहा है-'श्रुतज्ञान और केवलज्ञान, दोनों ही समस्त वस्तुओंको प्रकाशित करते हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष रूपसे जानता है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष रूपसे जानता है । जो श्रुतज्ञान और केवलज्ञानका विषय नहीं है वह अवस्तु है । अर्थात् ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो इन दोनों शानोंके द्वारा न जानी जासके ।। २६२ ।। श्रुतज्ञानका स्वरूप बतलाकर श्रुतज्ञानके भेद नयका स्वरूप बतलाते हैं । अर्थ-जो वस्तुके एक धर्मको विवक्षासे लोकव्यवहार को साधता है वह मय है । नय श्रुतज्ञानका मेद है तथा लिंगसे उत्पन्न होता है । भावार्थ-लोकव्यवहार नयके द्वारा ही चलता है; क्यों कि दुनियाके लोग किसी एक धर्मकी अपेक्षासे ही वस्तुका व्यवहार करते हैं । जैसे, एक राजाके पास सोनेका धडा या । उसकी लडकीको वह बहुत प्यारा था । वह उससे खेला करती थी। किन्तु राजपुत्र उस घडेको तुडवाकर मुकुट बनवानेकी जिद किया करता था । उसे घडा अच्छा नहीं लगता था । एक दिन राजाने घडेको तोड कर मुकुट बनवा दिया। घडेके टूटनेसे लडकी बहुत रोई, और मुकुटके बन जानेसे राजपुत्र बहुत प्रसन्न हुआ । किन्तु राजाको न शोक हुआ और न हर्ष हुआ । इस लौकिक दृष्टान्तमें लडकीकी दृष्टि केवल घोके नाश पर है, राजपुत्रकी दृष्टि केवल मुकुटकी उत्पत्ति पर है और राजाकी दृष्टि सोने पर है । इसी तरहसे दुनियाके
१५ धिपार । २४ पवासेहि। म ग गाणिस्त ।