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________________ १०. लोकानुप्रेक्षा व्यवहारे, मेदोपचारतया वस्तु व्यवहियते इति व्यवहार, प्रहणगमनयाचनषितरणादि वस्तु नित्यानित्यादिकं प्रसाधयति निर्मिनोति निष्पादयति, सोऽपि श्रुतज्ञानस्य स्याहादरूपस्य विकल्पः भेदः नयः कथ्यते । कयंभूतो नयः । लिसंभूतः लिोन हेतुरूपेण भूयते स लिगभूतः परार्थानुमानरूपः नूतनविहोवा। अथवा लिसंभूतो नयः कय्यते ॥ २६४॥ मथ नानाखभावयुकस्य यस्तुनः एकखभावग्रहण नयापेक्षया कथ्यते इत्याह णाणा-धम्म-जुदं पि' य एयं धर्म पि बुच्चदे अत्थं । तस्सेयं-विवक्खादो णस्थि विवक्खा हुँ सेसाणं ॥ २६४ ॥ छाया-नानाधर्मयुतः अपि च एकः धर्मः अपि उच्यते अर्थः । तस्य एकविवक्षात: नाम्ति विवक्षा खलु शेषाणाम् ॥] मानाधर्मयुक्तोऽपि अर्थ: अनेकप्रकारवभावसहितोऽपि जीवादिपदार्थः स्वदल्या दिग्राहकेण अस्तिस्वभावः, परद्रव्यादिग्राहकेय नास्तिखभावः, उत्पाहव्ययगौणत्वेन सत्तामाहफेण नित्यस्वभावः, केनचित्पर्यायाधिकेन अनित्यखभाषः। एवमेकानेकमेदामेदचेतनाचेतनामूर्तादिस्वभावयुक्तोऽपि जीवादिपदार्थः। तस्य अर्थस्य एको धर्मः,जीवो नित्य एव, जीवोऽस्त्येव इत्याद्यस्वभावविशिष्टः उन्यते कथ्यते । कुतः एकधर्मविवक्षातः एकखभाववतुमिच्छातः, न तु अनेकधर्माणामभावात् । हुस्फुटम् । शेषाणाम् अनित्यत्वनास्तित्वायनेक्रधर्माणां तत्र वस्तुनि विवक्षा नास्ति ॥ २६४ ॥ अथ धर्मवाचकशब्दतज्ज्ञानानो नयत्वं दर्शयति सो चिय एको धम्मो वाचय-सद्दो वि तस्स धम्मस्स । जं जाणदि तं नाणं ते तिणि वि णय-विसेसा य ॥ २६५ ॥ पर्यायधुद्धि लोग पर्यायकी अपेक्षा वस्तुको नष्ट हुआ अथवा उत्पन्न हुआ देखते हैं और द्रव्यदृष्टि लोग उसे नुत्र मानकर वैसा व्यवहार करते हैं, अतः लोकव्यवहार नयाधीन है । किन्तु सच्चा नय वस्तुके जिस एक धर्मको ग्रहण करता है उसे युक्तिपूर्वक ग्रहण करता है । जैसे वस्तुको यदि सत् रूपसे ग्रहण करता है तो उसमें हेतु देता है कि अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वस्तु सत्रूप है। इस तरह नय हेसुजन्य है। इसीसे अष्टसहस्रीमें श्रुतज्ञानको अहेतुशद और नयको हेतुवाद कहा है। जो बिना हेतुके वस्तुके किसीभी एक धर्मको स्वेच्छासे ग्रहण करता है वह नय नहीं है ॥ २६३ ॥ आगे, नाना स्वभाववाली वस्तुके एक स्वभावका ग्रहण नयकी अपेक्षासे कैसे किया जाता है, यह बतलाते हैं । अर्थ-नाना धसे युक्तमी पदार्थके एक धर्मको ही नय कहता है; क्योंकि उस समय उसी धर्मको विवक्षा है, शेष धर्मोकी विवक्षा नहीं है ।। भावार्थ-पद्यपि जीवादि पदार्थ अनेक प्रकारके धमीसे युक्त होते हैं खद्रव्य आदिकी अपेक्षा स्वभाव हैं, पर द्रव्य आदिकी अपेक्षा असस्वभाव है, उत्पाद व्ययको गौण करके भुवनकी अपेक्षा नित्य हैं, पर्यायकी अपेक्षा अनित्य हैं । इस तरह एकत्व, अनेकन्व, भेद, अभेद, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तस्त्र आदि अनेक धर्मयुक्त है। किन्तु उन अनेक धर्मो से नय एकही धर्मको ग्रहण करता है। जैसे, जीय नित्य ही है या सस्वभाव ही है, क्योंकि उस समय वक्ताकी इच्छा उसी एक धर्मको ग्रहण करनेकी अथवा कहनेकी है | किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि वस्तुमें अनेक धर्म नहीं है इसलिये वह एक धर्मको ग्रहण करता है, बल्कि शेष धर्मोंके होते हुए भी उनकी विवक्षा नहीं है इसीसे वह विवक्षित धर्मको ही ग्रहण करता है ।। २६४ ॥ आगे, वस्तुके धर्म, उसके वाचक शब्द तथा उसके ज्ञानको नय कहते हैं । अर्थ . छग धम्म पि, सम्म पि । २स ग तस्सेव म तम्सेयं । ३सम विवक्रतो । ४ स हि । ५म चिय । ६समस गमें।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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