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१०. लोकानुप्रेक्षा शक्षाशुद्भव्याधिकेन विभावसभावत्वम् । शुद्धद्रव्याधिकेन शुद्धखभावः । अशुद्धच्याधिकेन अस्वभावः । असन्तव्यवहारेण उपचरितखभावः। श्लोकः । "व्याणां तु यथारूप तल्लोकेऽपि व्यवस्थितम् । तथाज्ञानेन संज्ञानं नयोऽपि हि तथाविधः ॥ इति नययोजनिका । सकलवस्तुप्राइके प्रमाण, प्रमीयते परिच्छियते वस्तुतत्त्वं येन शानेन तत्प्रमाणम् । (तरेषा सविकल्पेतरभेदात् । सविकली गानसम्, महानिध: । गाविभाकिन पर्यापार । निर्विकल्प मनोरहितं. केवलज्ञानमिति प्रमाणस्य व्युत्पत्तिः) प्रमाणेन वस्तुसंगृहीतार्थकांशो नयः, श्रुतविकरूपो वा, ज्ञातुरभित्रायो वा नयः। नामाखभावेभ्यो व्याघस्य एकस्मिन् स्वभावे बस्तु नयति प्राप्रोति इति वा नयः । इति श्रुतज्ञानेन नयश्च वस्तु अनेकान्तं भवति । यदस्तु निरपेक्ष प्रतिपक्षधर्मानपेक्षम् एकान्तरूपं तस्तु न दृश्यते, नव लोक्यत एव । एकान्ता. त्मकस्य वस्तुनः जगत्मभावात् । 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत' इति वचनात् । तथा चोकम् । 'य एव नित्यक्षणिकादयो नश मिथोनपेक्षाः खपरप्रणाशिनः । त एष तस्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ॥' इति ॥ २६१ ॥ अथ श्रुतज्ञानस परोक्षगानेकान्तप्रकाशत्वं दर्शयति
सव्वं पि अणेयंतं परोक्ख-रुषेण जं पयासेदि ।
तं सुय-णाणं' भण्णदि संसय-यहुदीहि परिचत्तं ॥ २६२॥ [छाया-सर्वम् अपि अनेकान्त परोक्षरूपेण यत् प्रकाशयति । तत् श्रुटज्ञान भव्यते संशवप्रमृतिमिः परित्यतम् ॥] यत्परोक्षरूपेण सर्चमपि जीवादिवस्तु अनेकधर्मविशिष्ट प्रकाशयति तत् श्रुतज्ञानं भण्यदे, जिनोश्रुतशाने कथ्यते । तत्कीदृशम् । संशवप्रभृतिभिः परित्यर्फ संशयविपर्यासानध्यवसायादिमी रहितम् । स्थाणुर्वा पुरुष वा इति
खभाव है । शुद्ध द्रव्यार्षिक नयसे शुद्ध खभाव है और अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे अशुद्ध खभाव है। तया असद्भूत व्यवहार नयसे उपचरित स्वभाव है। सारांश यह है कि द्रव्योंका जैसा स्वरूप है वैसा ही ज्ञानसे जाना गया है, तथा वैसा ही लोकमें माना जाता है । नयमी उसे वैसा ही जानते हैं । अन्तर केवल इतना है कि प्रमाणसे वस्तुके सब धर्मोको ग्रहण करके ज्ञाता पुरुष अपने अभिप्रायके अनुसार उसमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वस्तुका कथच करता है | यही नय है । इसीसे ज्ञाताके अभिप्रायको भी नय कहा है। तथा जो नाना स्वभावोंको छोड कर वस्तुके एक खभावको कथन करता है यह नय है । नयके भी सुनय और दुर्नय दो भेद हैं । जो वस्तुको प्रतिपक्षी धर्मसे निरपेक्ष एकान्तरूप जानता या कहता है वह दुर्नय है । दुर्नयसे घस्तु स्वरूपकी सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि यह बतला आये हैं कि वस्तु सर्वथा एकरूप ही नहीं है । अतः जो प्रतिपक्षी धोकी अपेक्षा रखते हुए वस्तुके एक धर्मको कहता या जानता है वही सुनय है । इसीले निरपेक्ष नयोंको मिष्या बतलाया है और सापेक्ष नोंको वस्तुसाधक बतलाया है । खामी समन्तभद्रने स्वयंभूस्तोनमें विमलनाथ भगवानकी स्तुति करते हुए कहा है-वस्तु नित्यही है' अथवा 'वस्तु क्षणिकही है जो ये निरपेक्ष नय ख और पर के घातक हैं, हे विमलनाथ भगवन् ! वे ही नय परस्पर सापेक्ष होकर आपके मतमें तत्त्वमूत हैं,
और स्त्र और पर के उपकारक हैं ॥ २६१ ॥ आगे कहते हैं कि श्रुतज्ञान परोक्ष रूपसे अनेकान्तका प्रकाशन करता है । अर्थ-जो परोक्ष रूपसे सब वस्तुओंको अनेकान्त रूप दर्शाता है, संशय आदिसे रहित उस ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं ।। भावार्थ-तीन मिथ्याज्ञान होते हैं-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय । यह ढूंठ है अथवा आदमी है ? इस प्रकारके चलित ज्ञानको संशय कहते हैं । सीपको
१म सुअणाणं, म सुयनाणं भन्नादि । २सग परिचित ।