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________________ == स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २६१ I चेतनस्वभावो जीवस्य । असद्भूतव्यवहारेण कर्मनो कर्मणोरपि चेतनस्वभावः । परमभावप्राहण कर्मनो कर्मणोः अचेतनस्वभावः । जीवस्याप्य सद्भूतव्यवहारेण अचेतनखभाषः । परमभावग्राह केण कर्मनो कर्मणोर्मूर्तस्वभावः । जीवस्याप्य सद्भूतव्यवहारेण मूर्तस्वभावः । परमभावग्राहण पुद्गलं विहाय इतरेषां द्रव्याणाम् अमूर्तस्वभावः । पुलस्य तूपचारादर्पि नास्त्वमृर्तरम् । परमभावग्राहण कालपुद्रलाणूनाम् एक प्रदेशस्वभावस्वम् । मेदकल्पना निरपेक्षेण चतुर्णामपि नाना प्रदेशस्वभावत्वम् । पुद्गलाणोरुपचारत: ( नानाप्रदेशत्वं न च कालाणोः ब्रिग्धरूक्षत्वाभावात् । अरूक्षत्वा वाणोरमूर्त - ) पुद्गलस्यैकविंशतितमो भावो न स्यात् । परोक्षप्रमाणापेक्षा असद्भूनव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्तत्वम् ॥ पुद्रलस्य अपेक्षा भेदसे एक धर्मको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं। जैसे प्रमाणसे वस्तुको अनेक धर्मात्मक जानकर ऐसा जानना कि वस्तु खचतुष्टयकी अपेक्षा सत्स्वरूप ही है अथवा पर द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा असत्स्वरूप ही है, यह नय है। इसीसे प्रमाणको सकलग्राही और नयको विकलग्राही कहा है । किन्तु एक नय दूसरे नयकी अपेक्षा रखकर वस्तुको जाने, तभी वस्तुधर्मकी ठीक प्रतीति होती जैसे, यदि कोई यह कहे कि यस्तु सत्स्वरूप ही है असत्स्वरूप नहीं है तो यह नय सुनय न होकर दुर्नय कहा जायेगा । अतः इतर का निषेध न करके एक धर्मकी मुख्यतासे वस्तुको जाननेसे ही वस्तुकी ठीक प्रतीति होती है । इसीसे आलापपद्धतिमें कहा है- 'प्रमाणसे नाना धर्मयुक्त द्रव्यको जानकर सापेक्ष सिद्धिके लिये उसमें नयकी योजना करो' । यथा वदन्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा द्रव्य अस्तिस्वभाव है १ । परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा नास्तिस्वभाव है २ । उत्पाद और व्ययको गौण करके धौव्यकी मुख्यतासे ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा द्रव्य नित्य है ३ । किसी पर्यायको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा द्रव्य अनित्यस्वभाव है ४ । भेदकल्पना निरपेक्ष नयकी अपेक्षा द्रव्य एकखभाव अन्वयग्राही द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा एक होते हुए मी द्रव्य अनेकस्वभाव है ६ | सद्भूत व्यवहार नयसे गुण गुणी आदिकी अपेक्षा द्रव्य भेदभाव है ७ ! भेद कल्पना निरपेक्ष नयकी अपेक्षा गुण गुणी आदि रूपसे अभेद स्वभाव है ८ | परमभावके ग्राहक नयकी अपेक्षा जीवद्रव्य भव्य या अभव्यरूप पारिणामिक स्वभाव है ९ । शुद्ध या अशुद्ध परमभात्र ग्राहक नयकी अपेक्षा जीवद्रव्य चेतनस्वभाव है १० । असद्भूत व्यवहार नयसे कर्म और नोकर्म भी चेतन खभाव हैं ११ । किन्तु परमभाव ग्राहक नयकी अपेक्षा कर्म और नोकर्म अचेतन स्वभाव हैं १२ । असद्भूत व्यवहार नयसे जीव भी अचेतन स्वभाव है १३ । परमभाव ग्राहक नयकी अपेक्षा कर्म और नोकर्म मूर्त स्वभाव हैं १४ । असद्भूत व्यवहार नयसे जीव भी मूर्त स्वभाव है १५ । परमभावग्राही नयकी अपेक्षा पुगलको छोडकर शेष सब द्रव्य अमूर्त स्वभाव हैं तथा पुल उपचारसे भी अमूर्तिक नहीं है । परमभावग्राही नयकी अपेक्षा कालाणु तथा पुद्गलका एक परमाणु एक प्रदेशी हैं। भेद कल्पनाकी अपेक्षा न करने पर शेष धर्म, अधर्म, आकाश और जीवद्रव्य भी अखण्ड होनेसे एकप्रदेशी हैं । किन्तु भेद कल्पनाकी अपेक्षासे चारों द्रव्य अनेकप्रदेशी हैं । पुद्गलका परमाणु उपचारसे अनेक प्रदेशी है क्योंकि वह अन्य परमाणुओंके साथ बन्धनेपर बहुप्रदेशी स्कन्धरूप होजाता है। किन्तु कालाणुर्मे बन्धके कारण fare रूक्ष गुण नहीं है, इसलिये कालाणु उपचारसे भी अनेकप्रदेशी नहीं है। इसीसे अमूर्त काल में बहुप्रदेशत्वके बिना शेष १५ स्वभाव ही कहे हैं। शुद्धाशुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे पुद्गल विभाव१ आदर्शे तु "रुपचारतः अणोरमूर्तत्वात् भावे पुल" इति पाठः । ५।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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