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________________ * स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा हिंसारंभी ण सुहो देव- णिमितं गुरुण कज्जेसु । हिंसा पावं ति मदो दया पहाणी जदो धम्मो ॥ ४०६ ॥ [ गा० ४०६ [ छाया-हिंसारम्भः न शुभः देवनिमित्त गुरूणां कार्येषु । हिंसा पाप इति मतं दयाप्रधानः यतः धर्मः ॥ ] हिंसारम्भः हिंसायाः प्रारम्भः न शुभः न पुण्यं नापि श्रेष्ठः समीचीनो न भवति । किमर्थ हिंसारम्भः । देवनिमित हरिहरहिर प्रयगर्भचण्डिकाकालिका महन्मा याक्षेत्रपालयक्षभूत पिशाचादिदेवार्थ तथा गुरूणां कार्येषु कर्तव्येषु संशयिभिर्यदुक्तं देवगुरुधर्मकार्येषु हिंसा न दोषाय । तथा चोकं तत्सूत्रे | 'देवगुरुधम्मकज्जे चूरिज्जद चकवणं पि । जइ तं कुणइ ण साहू अनंतसंसारिओ होइ । जंग कारणेण सूज व गुण सो भगत संसारिओ होइ ॥ तथा रगगणवलं गर्भसंचारामा स वसनपरिमुत्को नायको तीर्थदेवः । पलमशन विधातुमन्दिरे भिक्षुचर्या समयगहनदातुर्मारणे नास्ति पापम् ॥ सयंमरो वा दिर्यवरो वा अहवा बुद्धझे थ अण्णो था । समभावभाविमप्या लहइ मोक्खं संदेहो ॥१/ बौद्धादीना हिंसकाना मुक्तिः कथिता । तथा मधुमया मिषाद्दारादिकं कल्पे स्थापितम् दुई १ दहिय २ णवणीयं ३ साप्पि ४ तिल ५ गुढं ६ मजं ७ मंसं ८ महु ९ इमाओ नवरसविगईओ अभिक्तणं २ आहारितये नो से कप्पर बुद्धगिलापरस से वियजा से वियणं परिपूरये नो चेवण अपरिपूरये [] अत एते संशयिनः आचार्या नरकं गच्छन्तीत्याह । पंचत्रणं कीर्ण पंचावणाई सतसहस्साइ पंचसया वायाला आयरिया परयं वज्रंति ५५५५००५४२ । एतत्सर्वं तन्मतोकम् । इत्येतत्सूत्रेण देवार्थं गुरु कार्येषु हिंसारम्भो निराकृतः, यतः हिंसा पापं इति जीववध संकल्पं पापमिति धर्मः यतिधर्मः दयाप्रधानो मतः कथितः षट्जीवनिकायरक्षापरः यतिधर्मः प्रतिपादितोऽस्ति । तथा प्रकारान्तरेण व्यस्याः गाथाया व्याख्यान वही धर्म है। वह धर्म उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उसम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य इन दश लक्षण रूप है । धर्मके येही" दस लक्षण है। जहाँ थोडीसी भी हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है ॥ ४०५ ॥ आगे तीन गाथाओंसे हिंसाका निषेध करते हैं। अर्थ-चूंकि हिंसाको पाप कहा है और धर्मको दयाप्रधान कहा है, अतः देवके निमित्तसे अथवा गुरुके कार्यके निमित्तसे भी हिंसा करना अच्छा नहीं है ॥ भावार्थ - जैनधर्मके सिवाय प्रायः सभी अन्य धर्मो में हिंसामें धर्म माना गया है। एक समय भारतमें यज्ञोंका बढ़ा जोर था और उसमें हाथी घोड़े और बैलोंको ही नहीं मनुष्य तक होमा जाता था । वे यज्ञ गजमेध, अश्वमेध, गोमेध और नरमेधके नामसे ख्यात थे। जैनधर्मके प्रभावसे वे यज्ञ तो समाह होगये । किन्तु देवी देवताओंके सामने बकरों, भैंसों, मुर्गों वगैरहका बलिदान आज भी होता है । यह सब अधर्म है, किसी की जान ले लेनेसे धर्म नहीं होता । किन्हीं सूत्रमन्थोंमें ऐसा लिखा है कि देव गुरु और धर्मके लिये चक्रवर्तीकी सेनाको भी मार डालना चाहिये । जो साधु ऐसा नहीं करता वह अनन्त काल तक संसारमें भ्रमण करता है । कहीं मांसाहारका मी विधान किया है। प्रन्थकारने उक्त गाथाके द्वारा इन सब प्रकार की हिंसाओं का निषेध किया है। उनका कहना है कि धर्मके नाम पर की जानेवाली हिंसा भी शुभ नहीं है । अथवा इस गाथाका दूसरा व्याख्यान इस तरह भी है कि देवपूजा, चैत्यालय, संघ और यात्रा वगैरह के लिये मुनियोंका आरम्भ करना ठीक नहीं है । तथा गुरुओंके लिये वसतिका बनवाना, भोजन बनाना, सचित्त जल फल धान्य वगैरहका प्रासुक करना आदि आरम्भ भी मुनियोंके लिये उचित नहीं हैं, क्यों कि ये सब आरम्भ हिंसाके कारण हैं । वसु १ 'गर्भसंसार' इत्यपि पाठः पुस्तकान्तरे ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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