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८.संपरानुप्रेक्षा
७ (छाया-सम्यक्स्व वेशवत महामत तथा जयः कषायाणाम् । एते संवरनामाः मोगाभावः समा एवं ॥ एते पूर्वोक्ता वरनामानः, आम्बनिरोधः संबर:) तदभिधानाः । ते के । सम्यक्त्वम् उपशमकशामिकदर्शन, देशवत देशसैयम (श्राद्वादशवसादिरूपम् , तह तथा, महारतम् अहिंसादिपपमहाव्रतरूपम्, तथा कषायाणां कोषारीना पञ्चविंशतिमेदभिशानां जयः निमहः, तथैव योगाभाषः मनोववनकाययोगाना निरोधः ॥ ९५॥
गुस्ती समिदी धम्मो अणुक्खा तह य परिसह-सओ वि । '
उकिट्ट चारित्त संवर-हेर्दू विसेसेण ॥ ९ ॥ [छाया-गुप्तयः समितयः धर्मः मनुप्रेक्षाः तथा च परीषहजयः अपि । उत्कृष्ट चारित्रं संपरहेतवः विशेषेण ॥] विशेषण उत्कर्षेण, एते संवरहेतवः आननिरोधकारणाने । वे के । गुप्तमः मनोवचनकायगोपनलक्षणाखिनः, समितरः इयोभाषेषणावाननिक्षेपणोत्सर्गलक्षणाः पञ्च, धर्मः उत्समक्षमादिदशप्रकारः, तथा अनुप्रेक्षाः अनिलादयो बादल, अपि पमा परीषजयः परीषहाणां शुषादीनां जयः विजयः खत्कृष्ट चारित्रं सामाणिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविधिसभसापरायगणरूयातला । तथा चोकं श्रीउमायामिदेवेन । 'स गुमिममितिधर्मानप्रेक्षापरीषडजदया अप गुप्त्यावीन विशदयति
। गुत्ती जोग-णिरोहो समिदी य पमाद-वजणं घेव।
धम्मो दया-पहाणो सुतते-चिंता अणुप्पेही ॥९७ ॥ कहा था । सो चौधे गुणस्थानमें सम्यक्त्यके होनेपर मिथ्यात्वका निरोध होजाता है । पाँचवें गुणस्थानमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षावत, इस प्रकार बारह प्रतरूप देशसंयमके होनेपर अविरतिका एकदेशले अभात्र होजाता है। छठे गुणस्थानमें अहिंसादि पाँच महायतों के होने पर अविरतिका पूर्ण अभाव होजाता है । सातवें गुणस्थानमें अग्रमादी होनेके कारण प्रमादका अभाव होजाता है । ग्यारहवें गुणस्थानमें २५ कषायोंका उदय न होनेसे कषायोका संवर होजाता है।
और चौदहवें गुणस्थानमें योगोंका निरोध होनेसे योगका अभाव होजाता है। अतः मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगके विरोधी होनेके कारण सम्यक्त्व, देशजत, महावत, कमायजय और योगाभाव संवरके कारण हैं । इसी लिये उन्हें संपर कहा है ॥ ९५ ॥ अर्थ-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, और उत्कृष्ट चारित्र, ये विशेषरूपसे संवरके कारण है। भावार्थ-पूर्व गाथामें जो संत्ररके कारण बतलाये हैं, वे साधारण कारण है, क्योंकि उनमें प्रवृत्तिको रोकनेकी मुख्यता नहीं है। और जबतक मन, वचन और काथकी प्रवृत्तिको रोका नहीं जाता, तबतक संघरकी पूर्णता नहीं हो सकती । किन्तु इस गायामें संवरके जो कारण बतलाये है, उनमें निवृत्तिकी ही मुख्यता है । इसी लिये उन्हें विशेष रूपसे संवरके कारण कहा है । मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको रोकनेको गुप्ति कहते हैं। इसीसे गुप्तिके तीन भेद होगये हैं—मनोगुति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । समितिके पाँच भेद हैं-ईयो, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और तत्सर्ग । धर्म उत्तम क्षमादि रूप दस प्रकारका है । अनुप्रेक्षा अनिल्स, अशरण आदि बारह हैं । परीषह क्षुधा, पिपासा आदि बाईस हैं । उस्कृष्ट चारित्रके पाँच भेद है-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशति, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाल्यात । तत्त्वार्थसूत्रके ९वें अध्यायमें उमाखामी महाराजने संवरके यही कारण विस्तारसे बतलाये हैं ॥९६ ॥ गुप्ति आदिको स्पष्ट करते हैं। अर्थ-मन, वचन, और कापकी
सब अणुवेहा, सग 'विक्खा। रेलमग तह परीसह, सताव परीसा। पोक। ४ पर्याव५बतत्म-कसग सतब- ३वमणुषेरा।