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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०९एवं जाणतो वि हु परिचयणीए वि जो ण परिहरइ । तस्सासवाणुवेक्खा सबा वि शिरस्थया होदि ॥ १३ ॥ छाया-एवं जानन भपि खल्ल परित्यजनीयान् अपि यः न परिहरति । तस्य आसमानुप्रेक्षा सर्वा अपि निरर्षका इति ॥] सस्प जीवस्य सर्वापि बमखापि आनदानुप्रेक्षा निरर्थका निष्फला भवति । तस्य कस्य । हुस्फुटम् । यः पुमान एवं पूर्वोक जाननपि परित्यजनीयानपि परिहार्यान् मिथ्यात्वकषायादीन् न परिहरति ॥ ११ ॥ एदे मोहय-भावा जो परिवजेइ उसमे लीणो। हेयं ति मण्णमाणो आसव-अणुवेहणं तस्स ॥ १४ ॥ [छाया-एतान् मोहजभावान् यः परिवर्जयति उपशमे लीनः । हेयम् इति मन्यमानः आन्नबालुप्रेक्षण तस्य ॥] तस्य योगिनः मानवानुप्रेक्षणं आम्नवाणां सप्तपश्चाशता ५७ अनुप्रेक्षणम् अवलोकन विचारणं च । सस्प कस्य । यः पुमान् परिवर्जयति परित्यजति । कान् । एतान् पूर्वोकान् मारमप्रशंसारीन मोइजमावान् मोहकमजनितपरिणामांन् । कीरक्षः सन् । उपशमे लीनः उपशमपरिणामे स्वशाम्ये छीनः लय प्राप्तः । पुनः कीदृक्षः । हेयमिति मन्यमानः सर्व शरीरादि खाज्यमिति जामन् ॥ १४॥ सर्वानवपरित्या सम्यत्तदादिगुणैर्युतम् । शुभचन्द्रनुतं सिद्धं वन्दे सुमतिकीतये ॥ इविनीखामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायानिषिधविद्याधरपदभाषाकविचा कर्षिभरकधीशुभचन्द्रदेवविरपितटीकायाम् भावा प्रेक्षायां ससमोऽधिकारः॥॥ ८. संपरानुमेक्षा अथ संवरानुप्रेक्षा गाथासप्तकेनाह सम्मत देस-वयं महब्वयं तह जओ कसायाणं । एदे संवर-णामा जोगाभावो तहा' चेव ॥ ९५॥ भावार्थ-जिस जीवमें उक्त बातें पाई जायें, उसे तीव्रकषायवाला समझना चाहिये ॥ ९२ ॥ अर्थ-इस प्रकार जानते हुए भी जो मनुष्य छोड़ने योग्य भी मिथ्यात्व, कषाय वगैरहको नहीं छोड़ता है, उसकी सभी आसवानोक्षा निष्फल है ॥ मावार्थ-किसी बातका विचार करना तमी सार्थक है, जब उससे कुछ लाभ उठाया जाये । आस्रवका विचार करके भी यदि उससे बचनेका प्रयन नहीं किया जाता, तो वह विचार निरर्थक है । ९३॥ अर्थ-जो मुनि साम्यभावमें लीन होता हुआ, मोहकर्मके उदयसे होनेवाले इन पूर्वोक्त भात्रोंको स्यागने योग्य जानकर, उन्हें छोड़ देता है, उसीके आत्रत्रानुप्रेक्षा है || भावार्थ-उसी योगीकी आस्रवानुप्रेक्षा सफल है, जो आस्रयके कारण पाँच प्रकारके मिथ्यात्व, बारह प्रकारकी अविरति, पचीस प्रकारकी कषाय और पन्द्रह प्रकारके योग को छोड़ देता है ॥ ९१ ॥ इति आम्नवानुप्रेक्षा ॥ ७ ॥ साल गाथाओंसे संवरअनुप्रेक्षाको कहते हैं। अर्थ-सम्यक्त्व, देशनत, महाबत, कषायोंका जीतना और योगोंका अभाव, ये सब संवरके नाम है ॥ भावार्थ-आसक्के रोकनेको संवर कहते हैं | आनवाजुप्रेक्षामें मिथ्यास्त्र, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योगको आसव परव'सपरिवरणीये, सग पीये। २मसग भुपिरखा। कमसग मोहनमावा) मसग विमिति म'। ५मस ग मणुषेणे। मामयागुवेनसा, ममामवानुमेधा! ममताम, सवाष।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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