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________________ -३२५] १२. धर्मानुप्रेक्षा २२९ [ छाया एवं यः निश्वयतः जानाति श्रव्याणि सर्व पर्यायान् । स सदृष्टिः शुद्धः यः शङ्कते स स्क्लु कुदृष्टिः ॥ ] स भन्यात्मा सम्यग्दृष्टिः शुद्धः निर्मल मूत्रवादिपञ्चविंशतिमलरहितः । स कः । य एवं पूर्वोक्तप्रकारेण निश्वयतः परमार्थतः द्रव्याणि जीवपुलधर्माधर्माकाशकालाख्यानि, सर्वपर्यायांश्च अर्थ पर्यायान् व्यजन पर्यायाव, जानाति वेति श्रघाति स्पृशति निश्चिनोति स सम्मम्टष्टिर्भवति । उक्तं च तथा शक्रेण । त्रैकाल्य व्यङ्कं नवपदसहितं जीवषद्ायलेश्याः पश्चान्ये वास्तिकाया व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेवाः । इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोतमर्हद्भिरीशैः, प्रत्येति श्रघाति स्वशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ॥” इति । हु इति स्फुटं स पुमान् कुदृष्टिः मिध्यादृष्टिः । स कः । शङ्कते यः जिनवचने देवगुरी धर्मे तत्वादिके शङ्कां संशयं संदेह करोति स मिथ्यादृष्टिर्भवेत् ॥ ३२३ ॥ जो ण विजानदि' त सो जिणवयणे करेदि सहहणं । जं जिणयरेहि' भणियं तं सक्षमहं समिच्छामि ॥ ३२४ ॥ [ छाया-य: न विजानाति सत्त्वं स जिनवचने करोति श्रद्धानम् । यत् जिनवरैः भणितं तत् सर्वमई समिच्छामि ॥ ] यः पुमान तत्त्वं जिनोदितं जीवादिवस्तु ज्ञानावर गादिकर्मप्रबलोदयात् न विजानाति न च वेत्ति स पुमान् जिनवचने सर्वशप्रतिपादित। गमे इति अग्रे वक्ष्यमाणं तत्त्वं श्रद्धानं निश्वयं रुचि विश्वालं करोति विदधाति इति । किं तत् । सर्व जीवाजीवादित वस्तु अहं समिच्छामि वाच्छामि चेतसि निश्चयं करोमि श्रद्दवामीत्यर्थः । तत् किम् । यद् भणितं कथितं प्रतिपादितम् कैः । जिनवरतीर्थंकरपरमदेवैः कथितं तत्त्वं वाञ्छामि । उक्तं च । “सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नैव हन्यते | आज्ञासिद्धं तु तद्ब्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥” इति ॥ ३२४ ॥ अथ सम्यक्त्वमाहात्म्य गाधात्रयेणारयणाण महारयणं संबं- जोयाण उत्तर्म जोयं । रिद्धी महा-रिद्धी सम्मत्तं सा - सिद्धियरं ॥ ३२५ ॥ प्रकार जो निश्चयसे सब द्रव्योंको और सब पर्यायोंको जानता है यह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्वमें शंका करता है वह मिथ्यादृष्टि है | भावार्थ- पूर्वोक्त प्रकारसे जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्पको तथा उनकी सब पर्यायोंको परमार्थ रूपमें जानता तथा श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है। कहा भी है "तीन काल, छः द्रव्य, नौ पदार्थ, छः काय के जीव, छः लेश्या, पाँच अस्तिकाय, व्रत, समिति, गति, ज्ञान और चारित्रके मेद, इन सबको तीनों लोकों से पूजित अर्हन्व भगवानने मोक्षका मूल कहा है, जो बुद्धिमान ऐसा जानता है, श्रद्धान करता है और अनुभव करता है वह निश्चयसे सम्यग्दृष्टि है" 1 और जो सच्चे देत्र, सच्चे गुरु, सच्चे धर्म और जिनवचनमें सन्देह करता है वह मिध्यादृष्टि है ॥ ३२३ ॥ अर्थ - जो तस्त्रोंको नहीं जानता किन्तु जिनवचनमें श्रद्धान करता है कि जिनवर भगवानने जो कुछ कहा है उस सबको मैं पसन्द करता हूँ। वह मी श्रद्धावान है । भावार्थ - जो जीव ज्ञानावरणकर्मका प्रबल उदय होनेसे जिनभगवानके द्वारा कहे हुए जीवादि तत्त्वोंको जानता तो नहीं है किन्तु उनपर श्रद्धान करता है कि जिन भगवानके द्वारा कहा हुआ तत्र बहुत सूक्ष्म है, युक्तियोंसे उसका खण्डन नहीं किया जा सकता । अतः जिनभगवानकी आज्ञारूप होनेसे वह ग्रहण करने योग्य है क्यों कि बीतरागी जिन भगवान अन्यथा नहीं कहते, ऐसा मनुष्य मी आज्ञासम्यक्त्वी होता है ॥ ३२४ ॥ आगे तीन गाथाओंके द्वारा सम्यतत्वका माहात्म्य बतलाते हैं । अर्थ- सम्यक्त्व सब रत्नोंमें महारत्न हैं, सब योगों में उत्तम योग है, सब ऋद्धियों में १ क म सग विजाणव २ म जीवार नव पयत्थे जो पण विद्याशेष करेदिसणं । २ व जिंगवरेण । सग सम्म म सबै । ५ ख रिद्धि । ४ सब्द (१)
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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