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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गसत्यादयवस्वारः, काययोगा औदारिकादयः सप्त। कीदृक्षास्ते । जीवप्रदेशानाम् भात्मप्रदेशानो लोकमात्राणां स्पन्दनविशेषाः बलनरूपाः । तत्र केन्चन मिध्याच्यादिसूक्ष्मसापरायगुणस्थानपर्यन्तानां जीवानां योगाः मोहोदयेन अष्टाविंशतिमेदभिनमोहकर्मविपाकेन युकाः । अफिपुनः । ततः उपरि त्रिषु गुणस्थानेषु तेन मोहोदयवियुका रहिसाः भानवाः, भास्रवन्ति संसारिक जीवमिति मानवाः, भवन्ति ॥८॥ मोह-विवाग-वसादो जे परिणामा हवंति जीवस्स । ते आसवा मुणिजसुमिच्छत्ताई अणेय-विहा ॥ ८९ ॥ [छाया-मोहविपाकवशात् ये परिणामाः भवन्ति जीवस्य । ते आस्रवाः जानीहि मिथ्यात्यादयः अनेकविधाः ॥] जीवस्य संसारिणः ते प्रसिद्धाः मिथ्यास्वादयः, मिथ्यात्व ५, अपिरति १२, कयाय २५, योगाः १५, अनेश्वविधाः शुभाशुभभेदेन बहुपकाराः, तान् आक्षवान् मन्यख, हे भव्य, त्वं जानीहि । ते के। ये जीवस्य भाषा: परिणामा भवन्ति । फुतः । मोहनिपाकवशात् मोहनीयकर्मोदयवशात् ॥ ८९ ॥ कम्मं पुण्णं पावं हे सेसि व होति सच्छिदरा। मंद-कसाया सच्छा तिध-कसाया असच्छा हु॥१०॥ काययोग । मनोवर्गणाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो हलन चलन होता है, उसे मनोयोग कहते हैं । वचनवर्गणाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो हलन चलन होता है, उसे वचनयोग कहते हैं । और कायवर्गणाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो परिस्पंद होता है, उसे काययोग कहते हैं। मनोयोगके धार मेद है--सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग और अनुभयमनोयोग । वचनयोगके भी चार भेद है-सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग और अनुभयवचनयोग । काययोगके सात भेद हैं-औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग । योग तेरहवें गुणस्थानतक होता है, और मोहनीयकर्मका उदय दसवें गुणस्थानतक होता है। अतः दमने गुणस्थानतक तो योग मोहनीयकर्मके उदयसे सहित होता है । किन्तु उसके आगे ग्यारहवें, बारहवे और तेरहवें गुणस्थानमें जो योग रहता है, वह मोहनीयकर्मके उदयसे रहित होता है ॥ ८८ ॥ अर्थ-मोहनीयकर्मके उदयसे जीवके जो अनेक प्रकारके मिथ्यात्व आदि परिणाम होते हैं, उन्हें आस्रव जानो ।। भावार्थ-- भास्त्रवपूर्वक ही बन्ध होता है। वन्धके पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इनमेंसे योगके सिवाय शेष कारण मोहनीयकर्मके उदयसे होते हैं । और मोहनीयकर्मका उदय दसवें गुणस्थानतक रहता है । दसवें गुणस्थानमें मोहनीयकर्मको बन्धब्युच्छित्ति होजानेसे ग्यारहवें आदि गुणस्थानोंमें योगके द्वारा केवल एक सातावेदनीयका ही बन्ध होता है । शेष ११९ प्रकृतियाँ मोहनीयकर्मजन्य भावोंके ही कारण बैंधती हैं । अतः यद्यपि आनका कारण योग है, तथापि प्रधान होनेके कारण योगके साथ रहनेवाले मोहनीयकर्मके मिथ्यात्य आदि भावोंको मी आमव कहा है ॥ ८९ ॥ अर्थ-कर्म दो तरह के होते हैं-पुण्य और पाप । पुण्यकर्मका कारण शुभासव कहाता है और पापकर्मका कारण अशुभानव कहाता है । मन्दकषायसे जो आसव होता है, वह शुभानव है और तीनकषायसे जो आस्रव होता है, वह अशुभास्त्रव है ।। भावार्थ-कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमेंसे प्रत्येककी चार जातियाँ होती हैं। अनन्तानुबन्धी, १ समृणिजद्ध । २ वम मिच्छवाई। ३ग देर [हेक]।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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