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________________ २२. पर्मानुमेशा . जो मण-इंदिय-विजई इह-भव-पर-लोय-सोक्वं-णिरवेक्खो। अप्पाणे विय णिवसई सझाय-परायणो होदि ॥४४॥ छाया-य: मनइन्दियविजयी इइभवपरलोकसौख्यनिरपेक्षः । आत्मनि एव निवसवि स्वाध्यायपरायणः मवति ॥] स भन्यजनः स्वाध्यायपरायणो भवति । स्वाध्याये वाचनाप्रच्छनानप्रेक्षानायधर्मोपदेशलक्षणे पश्चप्रकारे परायणः तत्परः सावधानः एकत्वं गतः । स कः । यो भन्यजनः आत्मन्येव शुद्धयुद्धचिदानन्दैकरूपशुद्धषिपामेदरनत्रयरूपपरमाननी परमात्मनि खात्मनि निवसति निवास करोति तिइति ध्यानेन एकले गच्छति, वन्यरूपसुखामृतम् अनुभवति समस्या स्वाध्यायपरायणः । कीद विधो भव्यः । मनइन्द्रियविजयी मनः मानसं चित्तम् , इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि तेषां विजयी जेता यक्षीकारकः इन्द्रियमनोव्यापारविरहितः । पुनः कर्थभतः। यो भव्यः इहनवपरलोकसौख्यनिरपेक्षा. इहभा मामायुष्यजन्म परलोक अग्रे प्राप्यमानस्वर्गादिभवः इन्द्रः तयोः सौख्यानि, शरीरपोषणमष्टाहारप्रवणयुवतिसेवनमानपूजालाभादीनि विमानाप्सरोदेवसेवादीनि च तेषु निरपेक्षः निःस्पृहः वान्छारहितः । दृष्टश्रुतानुभूतमोगाकांक्षारुपनिदानमशःख्यातिपूजामहत्त्वलाभादिरहित इत्यर्थः ॥ ४४० ॥ कम्माण णिज्जरष्टुं आहारं परिहरेइ लीलाए । एग-दिणादि-पमाणं तस्स तवं अणसणं होदि ॥४४१॥ [छाया-कर्मणा निर्जरार्थम् आहार परिहरति लीलया । एकदिनादिप्रमाणे तस्य तपः अनदान भवति ॥ तस्य भव्यस्य पैमः अनहाते नगे भाति । न विधीयते अशन भोजन चतुर्विधाहारे यस्मिमिति तदमशनम्, भानपानसाथमेयाविपरिहरणम् अनशनाख्यं तपः स्यात् । तस्य कस्म । यो भव्यः कीलया भल्लेशेन स्वशक्त्या आहारं चतुर्विध भोज्यम् होते है। और जो इन्दियोंके दास होते हैं वे अपनी शुद्ध बुद्ध आमासे कोसों दूर बसते हैं । अतः स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द इन पांचों विषयोंकी ओर अपनी अपनी उत्सुकता छोड़कर पाँचों इन्द्रियोंका शान्त रहना ही वास्तवमें सचा उपवास है और इन्द्रियोंको शान्त करनेके लिये चारों प्रकारके आहारका त्याग करना व्यवहारसे उपवास है। अतः जिन्होंने अपनी इन्द्रियोंको जीतकर वशमें कर लिया है वे मनुष्य भोजन करते हुए मी उपवासी है । सारांश यह है कि जितेन्द्रिय मनुष्य सदा उपयासी होते हैं, अतः इन्द्रियोंको जीतनेका प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४३९ ।। अर्थ- जो मन और इन्द्रियोंको जीतता है, इस भव और परमपके विषयसुखकी अपेक्षा नहीं करता, अपने आत्मसरूपमें ही निवास करता है और स्वाध्यायमें तत्पर रहता है ।। भावार्थ-सच्चा उपवास करने वाला वही है जो मन और इन्द्रियोंको अपने वशमें रखता है, इस लोक और परलोकके भोगोंकी इच्छा नहीं रखता अर्याद इस लोकमें ख्याति लाम और मन प्रतिष्ठाकी भावनासे तथा आगामी जन्ममें खर्ग लोककी देवांगनाओंको भोगनेकी अभिलाषासे उपवास महीं करता, तथा जो शुद्ध चिदानन्द खरूप परमात्मामें अथवा खात्मामें रमता है और अच्छे अच्छे शाखोंके अध्ययनमें तत्पर रहता है || ४४० ॥ अर्थ-उक्त प्रकारका जो पुरुष कर्मोकी निर्जराके लिये एक दिन वगैरहका परिमाण करके लीला मात्रसे आहारका त्याग करता है उसके अनशन नामक तप होता है । भावार्थ-ऊपरकी गाथामें जो विशेषताएं बतलाई हैं विशेषताओंसे युक्त जो महापुरुष काँका एक देशसे क्षय करनेके लिये एक दिन, दो दिन आदिका नियम लेकर बिना किसी करके बसुन्न । २२ वि णिवेसर! ३ घ एकदिगार । ४४ अणसणे । उवदास इत्यादि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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