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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [मा०५०समार-विलय-जोओ' बहु-पुण्णस्स वि ण सहा होदि । तं पुण्णं पि ण कस्स वि सधं 'जेणिष्टिछदं लहदि ॥ ५० ॥ [छाया-सकलार्थविषययोगः महुपुण्यस्यापि न सर्वथा भवति । तत्पुण्यमपि न कस्यापि सर्ष येनेप्सिस लभते ॥] भवति सर्वतः साकल्येन, न इति निषेधे । का। सकलाविषययोगः, अर्था धनधान्यादिपदार्थाः विषयाः पवेन्द्रियगोचराः सकलाः सर्वे च से च अर्थविषयाच सकलार्थविषयाः तेषां योगः संयोगः । कस्य । बहुपुण्यस्य प्रचुरवृषस्य, अपिशब्दात न केवलं स्वरूपपुण्यस्य अपुण्यस्य ब, कस्यापि प्राणिनः तत्पुण्यं न विद्यते येन पुण्येन सर्व समस्तम् ईप्सितं वाञ्छित वस्तु लभते प्राप्नोति ॥ ५० ॥ अथान सारे मनुष्याणां सर्वसामग्रीतुर्लभत्वं गायादशकेना कस्स वि णस्थि कल अहव कलत्तं ण पुत्त-संपत्ती । अह तेसिं संपत्ती सह वि सरोओ हवे देहो ॥५१॥ 'RY [छाया-फस्यापि मास्ति कल अथमा कलत्रं ने पुत्रसंप्राप्तिः । अथ वेषां संप्राप्तिः तथापि सरोगः भवेत् देहः ॥] कस्यापि मनुष्यस्य कल भार्या नास्ति न विद्यते, अथवा कल चेत् तर्हि पुत्रसंपत्तिः पुत्राण प्राप्तिन विद्यते. अथवा तेषो पुत्राणा प्राप्तिश्चेत् तथापि देहः शरीरे सरोगः श्वासोच्छ्वासभगंदरकुटोदर कष्टादिव्याधिर्भवेत् ॥ ५१॥ अहं जीरोओ"देहो तो धण-धष्णाण र्य संपत्ती । अह धण धणं होदि हु तो मरणं झत्ति दुक्केदि' ॥ ५२ ॥ [छाया-अथ नीरोगः देहः तत् धनधाम्याना नैव संप्राप्तिः । अथ धनधान्यं भवति खल्ल तत् मरणं झगिति होते अप अथवा देहः शरीर नीरोगः रोगरहितः तो तहि धनधान्यानां संपसिनव, अपघा धनधान्याना संपत्तिर्भवति चेत्, तर्हि, हु स्फुट, गिति बाल्यकुमारयौवनावस्थाविषु मरणं मृत्युः द्वौकते प्रामोति ॥ ५२ ॥ ___ mples बाहुबलीसे पराजित होना पड़ा और उनका सब अभिमान धूलमें मिल गया [इनकी कथाके लिये आदिपुराण सर्ग ३५-३६ देखना चाहिये । अनु०] || ४९ ॥ अर्थ बहुत पुण्यशालीको भी सकल धन, धान्य, आदि पदार्थ तथा भोग पूरी तरहसे प्राप्त नहीं होते हैं । किसीके मी ऐसा पुण्य ही नहीं है, जिससे सभी इच्छित वस्तुएँ प्राप्त हो सकें । भावार्थ-पूर्वोक्त शुभकार्योंमें प्रवृत्ति करनेसे पुण्यकर्मका बन्ध होता है, यह पहले कहा है। किन्तु प्रवृत्तिपरक मनुष्यमें वे बुराईयाँ वर्तमान रहती हैं, जिनसे पापकर्मका बन्ध होता है । अतः शुभ कार्यो प्रवृत्ति करते हुए मी कुछ न कुछ पापकर्म भी बँधते ही रहते हैं । फलतः जबतक जीवके साथ घातिकर्म लगे हुए हैं, तबतक पुण्यप्रकृतियोंके साथ पापप्रकृतियाँ मी बँधती ही रहती हैं, अतः ऐसा कोई क्षण ही नहीं होता जिसमें पुण्य ही पुण्यकर्मका बन्ध होता हो, इसलिये पुण्यात्मासे पुण्यात्मा जीबके साथ भी पापकर्म लगे ही रहते हैं और उनके कारण महापुण्यशाली जीवको भी संसारके सभी इच्छित पदार्थ प्राप्त नहीं हो सकते ॥ ५० ॥ अर्थ-किसी मनुष्यके तो स्त्री नहीं है, किसीके ली है तो उसके पुत्र नहीं होता है, किसीके पुत्र भी हुआ तो शरीर रोगी रहता है ॥ ५१ ॥ अर्थ--किसीका शरीर नीरोग हुआ तो धन धान्य सम्पदा नहीं होती। किसीके धन धान्य मी हुआ तो उसकी मृत्यु शीघ्र हो जाती है |॥५२॥ -.-.. --.-..- . यसयलिट्ठ विसनोज। २ लस गसम्बदो, म सम्बदा। ५ जो णिच्छिदं । ४ ल संसार । ५९ स सरोको । ६म अहवणी'। बनिरोओ। ८बव। ९समसग हुक्के ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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