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३ संसारानुप्रेक्षा पुण्ण-जुदस्स वि दीसदि' इट्ठ-विओयं अणिटु-संजोयं ।
भरहो वि साहिमाणो परिजिओ लहुय-भाएण ॥४९॥ [छाया-पुण्ययुतस्यापि दृश्यते इष्टवियोगः अनिष्टसंयोगः । भरतोऽपि साभिमानः पराजितः लघुकमात्रा ॥] दृश्यते ईक्ष्यते [ईक्षते !] । कम् : जियो इटामिन बापुमानितारोप, वैप्रयोगः तम , अनिष्टसंयोगं च अनिष्टानाम् अहिकाटकशत्रुप्रमुखाना संयोगः मेलापकः तम् । कस्य । पुण्ययुक्तस्य शुभप्रकृतिविपासहितस्य, भपिशब्दात् न केवलम् अपुण्ययुतस्य, इष्टोऽपि अनिष्टतामेति । तत्र कथां कधप्रति । भरतोऽपि श्रीमदादिदेवपुत्रोऽपि प्रथमचकवर्सपि साभिमानः सन् सगर्वः सन् पराजितः पराजयं नीतः। केन । लधुभ्राना अनुजेन श्रीबाहुमकिना ॥४॥
सर्वघाती पद्धकोंके उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशमसे जो सभ्यग्दर्शन होता है, उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । जिसके तीनोंमेंसे कोई मी एक सम्यक्त्व होता है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । गोम्मटसार जीवकाण्डमें सम्यग्दृष्टिका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-*णो ईदिये विरदो णो जीवे थावरे तसे वा पि । जो सहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ २९॥" अर्थात्, जो न तो इन्द्रियोंके विषयोंसे विरत है, न त्रस अथवा स्थावर जीवकी हिंसासे ही विरत है। किन्तु जो जिनभगवानके वचनोंपर श्रद्धान करता है, वह अविरतसम्यग्दृष्टि है । जो सम्यग्दृष्टि व्रतसे युक्त होता है, उसे प्रती कहते हैं । व्रती दो प्रकार के होते हैं-एक अणुनती श्रावक और दूसरे महाप्रती मुनि। श्रायकके १२ व्रत होते हैं-[ इन व्रतोंका स्वरूप जाननेके लिये देखो सर्वार्थसिद्धिका ७ वा अध्याय अथवा रसकरंडश्रावकाचारका ३, ४, ५ वौं परिच्छेद । अनु०] पाँच अणुन्नत, तीन गुणावत और चार शिक्षाव्रत । तथा महाव्रती मुनिके पाँच महाव्रत होते हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इन्हीं पाँच महाप्रतोंके एकादेश पालन करनेको अणुव्रत कहते हैं । अपने किये हुए पापोंके स्वयं प्रकट करनेको निन्दा कहते हैं, और गुरुकी साक्षीपूर्वक अपने दोनों के प्रकट करनेको गहीं कहते हैं । कषायोंके मन्द होनेसे उत्तम क्षमा आदि रूप जो परिणाम होते हैं, उन्हें उपशम भाव कहते हैं । इन सम्यक्त्व, व्रत, निन्दा, गह, आदि भावोंसे पुण्यकर्मका बन्ध होता है | किन्तु उनकी ओर विरले ही मनुष्योंकी प्रवृत्ति होती है । अतः विरले ही मनुष्य पुण्यकर्मका बन्ध करते हैं ॥ ४८ ॥ अर्थ-पुण्यात्मा जीवके भी इष्टका वियोग और अनिष्टका संयोग देखा जाता है। अभिमानी भरत चक्रवर्तीको भी अपने लघुभ्राता बाबुबलिके द्वारा पराजित होना पड़ा। भावार्थ-पहली गाथाओंमें पापकर्मसे पुण्यकर्मको उत्तम बतलाकर पुण्यकर्मकी और लोगोंकी प्रवृत्ति न होनेकी शिकायत की थी। किन्तु इसमें कोई यह न समझे कि पुण्यात्मा जीयोंको सुख ही सुख मिलता है । जिन जीवोंके पुण्यकर्मका उदय है, वे भी संसारमें दुःखी देख्ने जाते हैं। उन्हें भी अपने धन, धान्य, स्त्री, पुत्र, पौत्र, मित्र वगैरह इष्ट वस्तुओंका वियोग सहना पड़ता है, और सर्प, कण्टक, शत्रु वगैरह अनिष्ट वस्तुओंका संयोग होजानेपर उन्हें दूर करनेके लिये रात-दिन चिन्ता करनी पड़ती है । अतः यह नहीं समझना चाहिये कि जिनके पुण्यकर्मका उदय है, वे सब सुखी ही हैं । देखो, भगवान आदिनाथके बड़े पुत्र सम्राट भरतको अपने ही छोटे भाई
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