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________________ -१९८] १०. लोकानुप्रेक्षा पुनः कीरक्षाः। गुणगहणे अणुनतमहावतादिगुणपाहणे, सुन्छु अतिशयेग अनुरका प्रेमपरिणताः त्रिमहा। 'गणित प्रमोदम्' इति वचनात् । तथा योसम् । “अपन्या अन्तरात्मानो गुणस्थाने चतुर्यके । सन्ति द्वादश्चमे सर्वोत्तमा: क्षीणकषामिणः"भन्तरास्माम आत्मज्ञाः गुणस्थानेषु भनेकधा मध्यमा पामेकादशान्तेषु गुणकरिगाः इति॥१९॥ अथ परमात्मानं सक्षयति सम्सरा अरहता कपल-णाण मुणिय-सयलस्था। णाण-सरीरा सिद्धा सव्वुत्तम-सुक्ख-संपत्ता ॥ १९८ ॥ [छाया-सशरीराः भईन्तः केवलज्ञानेन साससकलार्थाः । शानशरीराः सिद्धाः सर्वोतमसौख्वसंप्रासाः ॥] महन्तः सर्वज्ञाः परमात्मानः कीरक्षाः । सशरीराः परनौदारिकशरीरसहिताः । रसासरमासमेदोऽस्सिमजावाति धातयः सप्त, तथा मलमूत्रादिसतोपघातयः, ताभिर्विवर्जितशरीराः चतुस्त्रिंशदतिशवाटप्रातिहानिन्वयनुष्य पहिताः । तथा गौतमखामिना उकं च।मोहाविसर्वदोषारिघातकेभ्यः सदा हतरजोभ्य विरहितरहस्कृतभ्यः पूजाभ्यो नमोऽईब्रः। अन्तिो जिनेन्द्राः त्रयोदशचतुर्दशगुणस्थानवर्तिनः मुण्डकेवल्यादयक्ष परमात्मानो भवन्तीलः। करवाने । बरूशानेन भुनित सातसकलार्याः फेवलज्ञानदर्शनाभ्यां शासदृष्टयुगपदतीतानागतवर्तमानमीवादिपदार्थाः । सिदाः विपरव्रतोंसे विचलित नहीं होते ॥ १९६ ॥ अब जघन्य अन्तरात्मा का खरूप कहते हैं । अर्थ-जो जीव अविरत सम्यग्दृष्टि हैं वे जघन्य अन्तरात्मा है। वे जिन भगवानके चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा करते रहते हैं और गुणोंको ग्रहण करनेमें बड़े अनुरागी होते हैं | भावार्य-अविरत सम्पग्दृष्टि अर्थात् चौथे अविरत गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यक दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा होते हैं। वे जिन भगवानके चरणकमलोंके भक होते हैं, वणुक्त महावत आदि गुणोंको ग्रहण करनेमें असन्त अनुरक्त होते हैं अथवा गुणों के अनुरागी होने के कारण गुणीजनोंके बड़े प्रेमी होते हैं, क्योंकि गुणीजनोंको देखकर प्रमुदित होना चाहिये ऐसा वचन है। कहा भी है-“चौथे गुण स्थानवी जीव जघन्य अन्तरात्मा है। और बारहवें गुणवान वर्ती क्षीणकषाय जीव सबसे उत्कृष्ट अन्तरात्मा है तथा मध्यम अन्तरात्मा पांचवे गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक गुणोंमें बढ़ते हुए अनेक प्रकारके होते हैं । विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है। चौथे गुणस्थान वाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीत्र जघन्य अन्तरात्मा होते हैं। ये जिनेन्द्रदेव, जिनवाणी और निर्मन्य गुरुओंकी भक्ति करने में सदा तत्पर रहते हैं। अपनी सदा निदा करते रहते हैं। क्यों कि चारित्र मोहनीय का उदय होने से उनसे व्रत तो धारण किये नहीं जाते। किन्तु भावना सदा यही रहती है कि हम कब प्रत धारण करें अतः अपने परिणामोंकी सदा निन्दा किया करते हैं और जिनमें सम्यग्दर्शन आदि गुण देखते हैं उनसे अत्यन्त अनुराग रखते हैं । इस तरह अन्तरारमाके तीन भेद कहे। सो चौथे गुणस्थान वाला तो जघन्य अन्तरात्मा है, पांचवे गुणसान वाला मध्यम अन्तरात्मा है और सातवें गुणस्थानसे लगाकर बारहवें गुणस्थान तक उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। इनमें मी सबसे उत्कृष्ट अन्तरात्मा बारहवें गुणस्थान वर्ती हैं अतः उसकी अपेक्षासे पांचवेसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तकके जीवोंको मी मध्यम अन्तरात्मा कह सकते हैं ॥ १९७ ॥ वन परमात्माका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-केवल ज्ञानके द्वारा सब पदायाँको जान लेनेवाले, शरीर सहित १ग सौक्त।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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