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________________ ९. निर्जरानुप्रेक्षा जो पुर्ण बिसये- विरत्तो अध्याणं समदो' वि संवरइ । मणहर- बिसहिंतो तस्स फुडं संवरो होदि ॥ १०१ ॥ यः परः सर्वतः अपि संवृगोति । मनोहर विषयेभ्यः तस्य स्फुटं संपरः भवति ॥ ] स्फुटं निश्चिर्त, तस्य भुतेः संवरः कर्मणां निरोधः भवति । तस्य कस्य । यः मुनिः पुनः संवृणोति सुंदरविषयी करोति सर्वदा सर्वकालमपि । कम् । आत्मानं खचिदानन्दम् । कृतः । मनोहर विषयेभ्यः मनोज्ञपवेन्द्रियगोवरेभ्यः । कीदृक्षः सन् । विषमविरक्तः विषया अष्टाविंशतिभेदभिन्नाः तेभ्यो बिरक्तः निरृतः ॥ १०१ ॥ वरं संवरं सारं कर्तुकामो विचेष्टते । शुभचन्द्रः सदात्मानं सदा सुमतिकीर्तिना ॥ इस श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा या स्त्रिविद्यविद्याधरषदभाषाकविचक्रवर्तिभट्टारक श्रीशुभ वश्व देवविरचितटीकायां संवरानुप्रेक्षायामष्टमोऽधिकारः ॥ ८ ॥ १०] ९. निर्जरानुप्रेक्षा वारस विद्देण तत्रसा णियाण- रहियस्स णिज्जरा होदि । dear भावणादो रिहंकाररस पाणिस्स ।। १०२ ॥ ear निर्जरानुप्रेक्षां प्रकाशयति- [छाया-द्वादशविधेन तपसा निदानरहितस्य निर्जरा भवति । वैराग्यभावनातः निरहंकारस्य ज्ञानिनः ॥ ] भवति । का (निर्जरा निर्जरणम् एकदेशेन कर्मणां शैचनम् । कस्य । ज्ञानिनः खात्मज्ञस्य । कीदृक्षस्य । निदानरहितस्व इहामुत्रमुखकांक्षारहितस्य । पुनः कीदृक्षस्य । निरहंकारिणः अभिमानरहितस्य मदाह करहितस्य । केन द्वादशमिवेन तपसा अनशनानोदर्यादिद्वादश प्रकार पथरनेन । कुतः । चैराग्यभावनातः[ भवान भोग विरतिर्वैराग्यं तस्य भावना अनुभवनम्, अथवा भावना खखरूप श्रद्धानम्, वैराग्य च भावना व वैराग्यभावने, ताभ्यां कर्मणां निर्जरा स्यात् । 'तपसा निर्भश च ।' इति सूत्रान् ॥ १०२ ॥ अथ निर्जरालक्षणं लक्षयति " 我 है ॥ १०० ॥ अर्थ - किन्तु जो मुनि विषयोंसे विरक्त होकर, मनको हरनेवाले पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे अपने को सदा दूर रखता है, उनमें प्रवृति नहीं करता, उसी मुनिके निश्चयसे लंगर होता है ॥ १०१ ॥ इति संक्रानुप्रेक्षा ॥ ८ ॥ अब निर्जरानुप्रेक्षाको कहते हैं । अर्थ-निदानरहित, निरभिमानी ज्ञानी पुरुषके वैराग्य की भावनासे अथवा वैराग्य और भावनासे बारह प्रकारके तपके द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है ।। भावार्थआत्मा से कर्मों के एकदेशसे झड़नेको निर्जरा कहते हैं । सामान्य निर्जरा तो प्रत्येक जीवके प्रतिसमय होती ही रहती है, क्योंकि जिन कर्मो का फल भोग दिया जाता है, वे आत्मासे पृथक हो जाते हैं । किन्तु विशेष निर्जरा तपके द्वारा होती है । वह तप बारह प्रकारका है । अनशन, अथमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविधशय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं। और, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये छह अन्तरंग तप हैं। इन तपके द्वारा निर्जरा होती है । किन्तु ज्ञानी पुरुषका ही तप निर्जराका कारण है, अज्ञानीका तप तो उलटे ही कारण होता है। तथा तप करके यदि कोई उसका मद करता है, कि मैं बड़ा तपखी हूँ तो वह तप बंधका ही कारण होता है। अतः निरभिमानी ज्ञानी का ही तप निर्जराका कारण होता है । तथा यदि इस लोकमें ख्याति पूजा वगैरह के लोभसे और परलोकमें इन्द्रासन गैरह वेक्ता । स कारि ९ व पुणु । २ ग विस। रेलमसम्बदा ४ विसयेदिदो ५ ७ ग सवणं । कार्तिक ०७
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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