________________
स्वामिकार्तिकैयानुप्रेक्षा
[गा ३१ मेरोरपि महन्छरीरे कुरुते २, लघिमा वायोरपि लघुता ३, गरिमा बनशैलादपि गुरुतरा ४, भूमौ स्थित्वा फरेण शिखा रादिस्पर्शनं प्राप्तिः ५, जले भूमाविव गमनं भूमौ जले श्व मजनोन्मजन प्राकाम्य जातिक्रियागुणदल्यसैम्यादिकरणं या प्राकाम्यम् ६, त्रिभुवनप्रभुस्वम् ईशवम् ७, अदिमध्ये वियतीत्र गमनम् अप्रतीघात अदृश्यरूपता अन्तर्षानम् अनेकरूपकरण मूर्तामृताकारकरणं वा कामिल पत्त्रम् ८ । अणिवा १ महिमा २ सविसा ३ गरिमा ४ न्तर्धान ५ कामरूपित्वं ६ प्राप्तिप्राकाम्यवशित्वेशिस्वाप्रतिहतत्वमिति दिक्रियिकाः, हत्यायनेकर्द्धिसंयुक्तम् ॥ इति श्रीस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाया भ. औशुभचन्द्रकृतायां टीकायां द्वादशवतव्याख्या समाप्ता ॥ ३० ॥ अय सामायिकप्रतिमो गाथाद्वयेन व्यनकि
जो कुणदि काउसग्गं बारस-आवत-संजदो धीरो। णमण-दुगं पि कुणंतोषदु-प्पणामो पसण्णप्पा ।। ३७१ ।। चिंतंतो ससरूवं जिण-बिंब अहव अक्खरं परमं ।
झायदि कम्म-विवायं तस्स पयं होदि सामइयं ॥ ३७२ ॥ [छाया-या करोति कायोत्सर्ग द्वादशआवर्ससंयतः धीरः । नमनविकम् अपि कुर्वन् चतुःप्रणामः प्रसन्नात्मा ॥ चिन्तयन् स्वस्वरूप जिनबिम्बम् अथवा अक्षरं परगम् । ध्यायति फर्मविपाक तस्य व्रत गति सामाथिकम् ॥ तस्य एकमी व्रतका निरतिचार पालन करे तो उसे इन्दपद मिलना कोई दुर्लभ नहीं । अर्थात् वह गरकर कल्पवासी देवोंका स्वामी होता है जो अणिमा आदि अनेक ऋद्धियोंका धारी होता है । ऋद्धियां इस प्रकार हैं-इतना छोरा शरीर बन्न: समाना के मायके एक छिद्रों कवर्तिकी विभूति रच डाले इसे अणिमा ऋद्धि कहते हैं । सुमेरुसे भी बड़ा शरीर बना लेना महिमा ऋद्धि है । वायुसे भी हल्का शरीर बना लेना लघिमा ऋद्धि है । पहाड़से भी भारी शरीर बना लेना गरिमा ऋद्धि है । भूमिपर बैठकर अंगुलिसे सूर्य चंद्रमा वगैरहको छु लेना प्राप्ति ऋद्धि है । जलमें भूमिकी तरह गमन करना और भूमिमें जलकी तरह डुबकी लगाना प्राकाम्य ऋद्धि है । तीनों लोकोंका खामीपना ईशित्व ऋद्धि है। आकाशकी तरह बिना रुके पहाडमेंसे गमनागमन करना, अदृश्य हो जाना अथवा अनेक प्रकारका रूप बनाना कामरूपित्य ऋद्धि है। इस तरह व्रत प्रतिमा का वर्णन करते हुए बारह व्रतोंका वर्णन पूर्ण हुआ ॥ ३७० ॥ अब दो गाथाओंसे सामायिक प्रतिमाको कहते हैं । अर्थ-जो धीर श्रावक बारह आवर्तसहित चार प्रणाम और दो नमस्कारोंको करता हुआ प्रसन्नतापूर्वक कायोत्सर्ग करता है | और अपने खरूपका, अथवा जिनबिम्बका, अधवा परमेष्ठीके वाचक अक्षरोंका, अथवा कर्मविपाकका चिन्तन करते हुए ध्यान करता है उसके सामायिक प्रतिमा होती है ॥ भावार्थ-सामायिक शिक्षारतका वर्णन करते हुए सामायिकका वर्णन किया गया है। सामायिक प्रतिमा उसका विशेष स्वरूप बतलाया है । सामायिक करनेवाला धीर धीर होना चाहिये अर्थात् सामायिक करते समय यदि कोई परीषह अथवा उपसर्ग आजाये तो उसे सहनेमें समर्थ होना चाहिये तथा उस समय भी परिणाम निर्मल रखने चाहिये । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और परिग्रह वगैरहकी चिन्ता नहीं होनी चाहिये । प्रथम ही सामायिक दण्डक किया जाता है | उसकी विधि इस प्रकार है-श्रावक पूर्वदिशाकी ओर मुंह करके दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर भूमिमें नमस्कार करे। फिर खड़ा होकर दोनों हाथ नीचे लटकाकर शरीरसे ममत्य छोद कायोत्सर्ग करे ।
१.कम स ग कुणा । २ म आउत्त। ३ ल म स ग करतो। ४ सामार (?) ई ! सत्तम इस्पाणि ।