SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३६२ संबुर्डगस्स होदि तह कायमुद्धी वि ॥ ६ ॥ चोइसमलपरिमुद्ध जं दाणं सोहिदूण जयणाए । संजदजणस्स विजदि सा या सणामुद्धी ॥ ७ ॥ इति सतदातृगुणैर्नवविधपुण्योपार्जनविधिभिश्च कृत्वा त्रिविधपाशेभ्यः अशनपान खायस्वायं चतुर्विधं दानं दातव्यमित्यर्थः ॥ ३६० - १ ।। अथाद्वारादिदानमाहात्म्यं गाथात्रयेण व्यनति भोयण दाणे' सोक्खं ओसह दाणेण सत्थ-दाणं च । जीवाण अभय दाणं सुदुलहं सब-दाणेसु' ।। ३६२ ॥ [ छाया-भोजनदानं सौख्यम् औषधदानेन शाखदानं च जीवानाम् अभयदानं सुदुर्लभं सर्वदानेषु ॥] भोजनदानेन अशनपान खाद्यखाद्यचतुर्विधाहारप्रदानेन सौख्यं भोगभूम्यादिजं सुखं भवति । कीदृशं तद्भोजनं न देयम् । उक्तं च । "विवर्ण विरसं विद्धमसात्म्यं प्रमृतं च यत् । मुनिभ्योऽनं न तद्देयं यत्र भुक्तं गदायहम् ॥ १ ॥ उच्छिष्टं नीचलोका भन्योद्दिष्टं विगर्हितम् । न देयं दुर्जन स्पृष्टं देवयक्षादिकल्पितम् ॥ २ ॥ ग्रामान्तरात्समानीतं मन्त्रानीतमुपायनम् । न देयमापणक्रीतं विरुद्धं वायकम् ॥ ३ ॥” इति । औषधदानेन सह शास्त्रदानं ज्ञानदानं स्यात् । च पुनः सर्वजीवानाम् अभयदानं सर्वप्राणिनो रक्षणमभयदानम् । किंभूतम् । सर्वदानानां मध्ये सुदुर्लभं अतिदुःप्रापम् तस्याभयदानस्य शास्त्रीषधाहारमयस्वात् ॥ ३६२ ॥ अथाहारदानस्य माहात्म्यं गाथाद्वयेनाह भोयण-दाणे दिपणे तिणि वि दाणाणि होति दिण्णाणि । भुक्ख-तिसाए वाही दिणे दिणे होति देहीणं ॥ ३६३ ॥ स्कार करना चाहिये तथा आर्त और रौद्र ध्यानको छोड़ कर मनको शुद्ध करे, निष्ठुर फर्कश आदि वचनोंको छोड़कर बचनकी शुद्धि करे और सब ओरसे अपनी कायाको संकोच कर कायशुद्धि करे । नख, जीवजन्तु, केश, हड्डी, दुर्गन्ध, मांस, रुधिर, चर्म, कन्द, फल, मूल, बीज आदि ater मलों से रहित तथा यज्ञ पूर्वक शोधा हुआ भोजन संयमी मुनिको देना एषणा शुद्धि है। इस तरह दाताको सात गुणों के साथ पुण्यका उपार्जन करनेवाली नौ विधिपूर्वक चार प्रकारका दान तीन प्रकारके पात्रोंको देना चाहिये || ३६० - ३६१ ॥ आगे तीन गाथाओंसे आहार दान आदि का माहात्म्य कहते हैं । अर्थ - भोजन दान से सुख होता है । औषध दानके साथ शास्त्रदान और जीवोंको अभयदान सब दानों में दुर्लभ है । भावार्थ - खाद्य ( दाल रोटी पूरी वगैरह ), खाद्य ( बर्फी लाइ वगैरह ) लेखा (रबड़ी गैरह) और पेय ( दूध पानी वगैरह ) के भेदसे चार प्रकारका आहारदान सत्पात्रको देनेसे दाताको भोगभूमि आदिका सुख मिलता है। किन्तु मुनिको ऐसा भोजन नहीं देना चाहिये जो विरूप और विरस होगया हो अर्थात् जिसका रूप और खाद बिगड़ गया हो, अथवा जो मुनिकी प्रकृतिके प्रतिकूल हो या जिसके खानेसे रोग उत्पन्न हो सकता हो, या जो किसीका जूठा हो, या नीच लोगों के योग्य हो, - या किसी अन्यके उद्देशसे बनाया हो, निन्दनीय हो, दुर्जनके द्वारा छू गया हो, देव यक्ष बगैरइके द्वारा कल्पित हो, दूसरे गांव लाया हुआ हो, मंत्रके द्वारा बुलाया गया हो, भेंटसे आया हो अथवा बाजार से खरीदा हुआ हो, ऋतुके अननुकूल तथा विरुद्ध हो । औषधदान शास्त्रदान और अभयदान में अभयदान सबसे श्रेष्ठ है, क्यों कि सब प्राणियों की रक्षा करनेका नाम अभयदान है अतः उसमें शास्त्रदान, औषधदान और आहारदान आ ही जाते हैं || ३६२ || आगे दो गाथाओंसे आहार दानका माहात्म्य कहते हैं । अर्थ- भोजनदान देने पर तीनों ही दान दिये १ दार्य [द] ], म स म दाणेण २ ब दाणेण सत्यवाणीणं, रू दाणेण सम्पदा च ल म सग दाणा । * दाणी (६) ति दिण्णाइ । ५ दिणिदिधिति नीकाणं ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy