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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १७१हिडिम-मझिम-रवरिम-गेवजे नई विमाण-सदमए । अद्ध-जुदा थे हत्था हीणं अद्धयं उपरि ।। १७१॥ [छाया-धस्तनमध्यमोपरिमप्रवेयके तथा विमान चतुर्दशके । अर्धयुती द्वौ हस्ती हीनम् अर्धार्थकम् उपरि ।] स्मघस्तनमध्यमोपरिमवेयकेषु तथा विमानचतुर्दशेषु अर्धयुक्तद्वौ हस्ती , द्रौ हस्ती, ततः उपरि अर्धाहीनः ।।।। तश्या ! अधोवेयकत्रिकेऽहमिन्द्राणां शरीरोनत्वं सार्धद्विहस्त्रौ, मध्यमवेयकत्रिके अहमिन्द्राणां शरीरोदयः द्वौ हस्ती २, उपरिमप्रैदेयकत्रिके अहमिन्द्रदेवानां हेहोदयः यहखप्रमाणः ।, नवानुदिशपश्चानुत्तरचतुर्दशषिमानेषु एकहत्तोदयशरीरा अहमिन्द्रा भवन्ति ॥ ११॥ अथ भरतराषतक्षेत्रेषु अवसर्पिण्या: षट्कालापेक्षया शरीरोत्सेध साधयति अवसप्पिणीए पढमे काले मणुया ति-कोस-उच्छेहा । छहस्स वि अवसाणे हत्थ-पमाणा विवत्था य ॥ १७२॥ [छाया-अवसर्पिण्याः प्रथमे काले मनुजाः त्रिकोशोत्सेधाः । षष्ठस्य अपि अवसाने हस्तप्रमाणाः विवस्त्राः च ॥] अवसर्पिण्या: प्रथमकाले सुषमसुषमसो मनुष्याः त्रिकोनोस्सेधशरीराः को, ३, तस्यान्ते द्वितीयकालमादी च द्विकोशोदयशरीराः २, सस्यान्ते सुषमषमतृतीयकालस्पादौ च क्रोशोत्सेधवेहाः को. १,तस्यान्ते दुषमसुषमचतुर्थकालस्वादीच पानशतधनुःसमुत्तुलाशा५.., तस्यान्ते दुषमसंज्ञपश्चमकालस्यादौ च समइस्लोजतमनुष्याः, षष्ठकालस्यापि भवसाने अन्ते एकहखप्रमाणोदयाः मनुष्याः १। विवनाश्व वनरहिताः, चकारात् आमरणगृहाविरहिता भवन्ति ॥ १७२।। अथ सर्वजीवानामुत्कृष्टोदय प्रकाश्य जघन्योदयं व्यनषि सष-जहण्णो देहो लद्धि-अपुण्णाण सम्य-जीवाणं । ___अंगुल-असंख-भागो अणेय-भेओ हवे सो वि ॥ १७३ ॥ नौ अनुदिश तथा पाँच अनुत्तरोंमें १हाथ ऊँचाई है ॥१७०॥ अर्थ-अघोप्रैबेयक, मध्यमवेयक, उपरिमप्रैवेयक तया चौदह विमानोंमें देवोंके शरीरकी ऊंचाई क्रमसे अदाई हाय, दो हाथ, बेड हाय और एक हाथ है || भावार्थ-तीन अधोगवेयकोंमें अहमिन्द्रोंके शरीरकी ऊंचाई अढाई हाय है। तीन मध्यमत्रेयकोंमें अहमिन्द्रदेवोंके शरीरकी ऊंचाई दो हाय है। तीन उपरिम अवेयकोंमें अहमिन्द्र देवोंके शरीरकी ऊँचाई डेढ हाथ है । तथा नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर इन चौदह विमानोंके अहमिन्द्रोंके शरीरकी ऊँचाई एक हाथ है ॥ १७१ ॥ अब भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें अवसर्पिणी कालकी अपेक्षासे मनुष्योंके शरीरफी ऊंचाई कहते हैं । अर्थ-अवसर्पिणीके प्रथम कालमें मनुष्यों के शरीरकी ऊंचाई तीन कोस है । और छठे कालके अन्तमें एक हाथ है । तथा छठे कालके मनुष्य नंगे रहते हैं ।। भावार्थ-अवसर्पिणीके सुधमनुषमा नामक प्रथम कालमें मनुष्योंका शरीर तीन कोस ऊँचा होता है। उसके अन्तमें और सुषमा नामक दूसरे कालके आदिमें दो कोस ऊंचा शरीर होता है । दूसरेके अन्तमें और सुषमदुषमा नामक तीसरे कालके आदिमें एक कोसका ऊंचा शरीर होता है। तीसरेके अन्तमें और दुषमसुषमा नामक चौथे कालके आदिमें ५०० धनुषका ऊंचा शरीर होता है । चौथेके अन्त में और दुषमा नामक पांचवे कालके आदिमें सात हायका उचा शरीर होता है । पांचवेके अन्तमें और दुषमा दुषमा नामक छठे कालके आदिमें दो हाथका ऊंचा शरीर होता है । तथा छठेके अन्तमें मनुष्यों के शरीरकी ऊंचाई एक हाथ होती है । वे नंगे रहते हैं और न उनके घर-द्वार होता है ॥ १७२ ॥ अब सब जीवोंके शरीरकी उत्कृष्ट ऊंचाई बतलाकर जघन्य व गेनजे, म विश्ले । २ [१]. म उनसः । ४ ग सुमसुम'। ५ग दुःखम । म कवियपुष्णाण (1)।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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