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________________ १०. लोकानुप्रेक्षा [छाया-सर्वजधन्यः देहः लब्ध्यपूर्णानो सर्पजीवानाम् । भालासंख्यभागः अनेकमेदः भवेत् स अपि ॥1 लम्पपयोताना सर्पजीवानाम् एकेन्द्रियदीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियाशिसंज्ञिप्राणीनां सर्पजधन्यो देहो भवति शरीरावमाहः सर्वजपन्यः स्यात् । स कियमान इति चेत्, अंगुलअसंखभागो पनालस्यासंख्यातभागमात्रः। सोऽप्यवगाहः एकप्रकारो अनेकप्रकारो वा इत्युक्त आह । अनेकभेदः मनेकप्रकार: स्यात् । गोम्मटसारे मत्स्य. रचनाया चतुःषष्टिजीसमासाचगाहः घनालस्यासंख्येयभागः अनेकप्रकारः अवलोकनीयः ॥ १३॥ अय द्वीन्त्रियाहीना जघन्यावगाई गाथाद्वयेनाइ वि-ति-घउ-पंचक्खाणं जहण्ण-देहो हवेइ पुण्णाणं । अंगुल-असंख-भागो संख-गुणो सो वि उवरुवार' ॥ १७४॥ [छाया-द्वित्रिचतुःपञ्चाक्षाणां जघन्यवेहः भवति पूर्णानाम् । अङ्गलासंख्यभागः संख्यगुणः स अपि उपर्युपरि ] वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाणा द्वीन्द्रियत्रीन्नियचतुरिन्द्रिग्रपञ्चेन्द्रियजीवानाम् । कर्थभूतानाम् ! पूर्णानां पर्याप्तकाना, जपन्यदेहः जघन्यशरीरावगाहः, भालासंख्यातभागः । घनाकुलस्यासंख्यातभागमाशोऽपि उपर्युपरि सोऽपि तत्संख्यातगुणो भवति । द्वीन्द्रियादिपर्यासकस्प जघन्याचगाहः ॥त्री. प. ज. , च.प. ज. प. प. ज.. . । अपर्याप्तद्वीन्द्रियाशीनाम् उत्कृतशरीरावगाहः जघन्यतः किंचिकिचिदधिककमो ज्ञातव्यः ॥ १७४ । पूर्वचितपर्याप्तकदीन्द्रियादीन खामिनिर्देशमाइ अणुरीयं कुथो' मच्छी काणा य सालिसित्थो य। पज्जत्ताण तसाणं जहण्ण-देहो विणिहिट्ठो ॥ १७५ ॥ ऊंचाई बतलाते हैं । अर्थ-लन्थ्यपर्याप्तक सब जीनोक' सबसे जन्य सरीजा है, जो कार असंख्यातवें भाग है । तथा उसके मी अनेक मेद है ।। भावार्थ-लन्यपर्याप्तक एकेन्द्रिय, लब्ध्यपर्यासक दोइन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक तेइन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक चौइन्द्रिय, लब्ध्यपर्याप्तक असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और लब्ध्यपर्याप्तक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंका शरीर सबसे जघन्य होता है । उसकी अवगाहना धनांगुल के असंख्यातवें भाग होती है । किन्तु उसमें भी अनेक भेद हैं । गोम्मटसार जीवकण्डके जीवसमास अधिकारमें मत्स्यरचनाका कथन करते हुए चौसठ जीवसमासोंकी अवगाहना घनांगुलके असंख्यात भाग बतलाई है और उसके अनेक अवान्तर भेद बतलाये हैं। सो वहांसे जानलेना चाहिये ॥ १७३ ।। अब दोइन्द्रिय आदि जीवोंकी जघन्य अबगाइना दो गाथाओंसे कहते हैं। अर्थ-दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्यास्त जीवोंकी जघन्य अवगाहना अंगुलके असंख्यातवें भाग है । सो मी ऊपर ऊपर संख्यातगुणी है | भावार्थ-दोइन्द्रिय पर्याप्त, तेइन्द्रिय पर्याप्त, चौइन्द्रिय पर्याप्त और पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके शरीरकी जघन्य अवगाहना यमपि सामान्यसे घनांगुलके असंख्यातवें भाग हैं किन्तु ऊपर ऊपर वह संख्यातगुणी संख्यातगुणी होती गई है। अर्थात् दोइन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना घनांगुलके असंड्यातवें भाग है । उससे संख्यात गुणी तेइन्द्रिय पर्याप्तक जीवके शरीरकी अवगाहना है । तेइन्द्रियसे संख्यातगुणी चौइन्द्रिय पर्याप्तक जीवकी अवगाहना है । चौइन्द्रियसे संख्यातगुणी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तककी अनगाहना है । पर्याप्त दो इन्द्रिय आदिके शरीरकी उत्कृष्ट अबगाइना जघन्य अवगाहनासे कुछ अधिक कुछ अधिक --.-.-. -- -- - १ग उवरवरि।२ब अण्णुधरी, कम आणुध०,सार, गमध०। छग पुमच्छामस (). ४ देवप्रमाण । कोय इत्यादि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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